Book Title: Vyakhyapragnaptisutram Part 02
Author(s): Divyakirtivijay
Publisher: Shripalnagar Jain Shwetambar Murtipujak Derasar Trust
View full book text ________________ श्रीभगवत्यङ्ग श्रीअभय वृत्तियुतम् भाग-२ // 1061 // चउरिदियाणं एएसिं जहा नेर०,५अत्थिणंभंते! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं सक्कारेइ वाजाव पडिसंसाहणया?, हंता अस्थि, नो चेवणं आसणाभिग्गहेइ वा आसणाणुप्पयाणेइवा, मणुस्साणंजाव वेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं // सूत्रम् 507 // 6 अप्पड्डीए णं भंते! देवे महटियस्स देवस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा?, नो तिणढे समढे, 7 समिडिएणं भंते! देवे समड्डियस्स देवस्स मज्झम० वीइ०, णो इणमढे समढे, पमत्तं पुण वीइ०, 8 से णं भंते! किं सत्थेणं अवक्कमित्ता पभू अणक्कमित्ता पभू?, गोयमा! अव० पभूनो अण० पभू, ९से णं भंते! किं पुव्विंसत्थेणं अक्कमित्ता पच्छा वीयी. पुव्विं वीईव० पच्छा सत्थेणं अक्कमेजा?, एवं एएणं अभिलावेणंजहा दसमसए आइटी उद्देसए तहेव निरवसेसंचत्तारिदंडगा भाणियव्वा जाव महड्डिया वेमाणिणी अप्पट्टियाए वेमाणिणीए॥सूत्रम् 508 // 3 अत्थिणमित्यादि, सक्कारेइ वत्ति सत्कारो विनयाहेषु वन्दनादिनाऽऽदरकरणं प्रवरवस्त्रादिदानं वा सत्कारो पवरवत्थमाईहि मिति वचनात्, सम्माणेइ व त्ति सन्मानः तथाविधप्रतिपत्तिकरणम्, किइकम्मेइ व त्ति कृतिकर्म वन्दनं कार्यकरणं वा, अब्भुट्ठाणेइवत्ति, अभ्युत्थानं गौरवाईदर्शने विष्टरत्यागः, अंजलिपग्गहेइ वत्ति, अञ्जलिप्रग्रहोऽञ्जलिकरणम्, आसणाभिग्गहेइ वत्ति, आसनाभिग्रहः तिष्ठत एव गौरव्यस्यासनानयनपूर्वकमुपविशतेति भणनम्, आसणाणुप्पयाणेइ व त्ति, आसनानुप्रदान गौरव्यमाश्रित्यासनस्य स्थानानन्तरसञ्चारणम्, इंतस्स पच्चुग्गच्छणय त्ति, आगच्छतो गौरव्यस्याभिमुखगमनम्, ठियस्स पज्जुवासणय त्ति तिष्ठतो गौरव्यस्य सेवेति, गच्छंतस्स पडिसंसाहणय त्ति गच्छतोऽनुव्रजनमिति, अयं च विनयो नारकाणां नास्ति, सततं दुःस्थत्वादिति // 507 // 6 पूर्वं विनय उक्तः, अथ तद्विपर्ययभूताविनयविशेषं देवानां परस्परेण प्रतिपादयन्नाह, अप्पड्डिए ण मित्यादि, 9 एवं एएणं 14 शतके उद्देशक:३ शरीराधिकारः। सूत्रम् 507 नारकदेवपो० तिर्यवानां सत्कारादिविनयसद्भावप्रश्नाः / सूत्रम् 508 अल्पसमानद्धिदेवस्य | महा| समानर्द्धिदेव मध्येनगति |प्रहारसामर्थ्य|प्रश्नाः / // 1061 //
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