Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, Chandraprabhsagar
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
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१९६
[ श्रीवीतरागस्तोत्रे
अथातः स्तुतिकृदुत्तरोत्तरगुणमहिमनि भगवति परमात्मनि समुल्लसिताद्भुतभक्तिर्भक्तिस्तवमुपक्षिपन्नाहजगज्जैत्रा गुणास्त्रातरन्ये तावत्तवासताम् । उदात्तशान्तया जिग्ये, मुद्रयैव जगत्त्रयी ॥१॥ __ हे जगरक्षक ! जगतने जीतनारा आपना अन्य गुणो तो दूर रहो परन्तु उदात्त-पराभव न पमाडी शकाय तेवा तमे शान्त-त्रण जगतना प्राणी समूहना नयनने अपूर्व आह्लाद पमाडे एवी आपनी मुद्राए जत्रणे जगतने जीती लीधा छे. (१)
योगशुद्धेहृदये प्रतिभासात् भक्तिं व्यनक्ति
अव० जग०-हे त्रातर !, रक्षक !; तव त्रैलोक्यजि. त्वरा अन्ये गुणा दूरे आसतां तिष्ठन्तु । अनभिभवनीयसौम्ययैकया मुद्रयैव जगत्त्रयी जिग्ये न्यक्कृता ॥ १ ॥
वि०-हे त्रातर् ! भवभयोपप्लुतसत्त्वपालक ! तव सम्बन्धिनोऽन्येऽद्भुतस्तवमहिमस्तवादिवर्णिता जगज्जैत्रा जगद्गतगुणिगणगुणेभ्योऽनन्तगुणमहिमत्वेन जेतारो गुणास्तावदासतां दूरे तिष्ठन्तु ! किन्तु मुद्रयापि त्वया जगत्रयी जिग्ये । किं विशिष्टया ? उदात्तशान्तया उदात्तया अनभिभवनीयया, तथाविधा च कदाचिद् धृष्यतयानभिगम्या स्यादित्याह-शान्तया सौम्यया सकललोकलोचनानन्ददायिन्या मुद्या मूर्त्यापि जगत्रयी भूर्भुवःखःस्वरूपा जिग्ये न्यक्कृता। अर्हदनुरूपबललवणिमादीनामन्यत्राभावात् ॥ १ ॥
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