Book Title: Vicharsar Prakaranam Cha
Author(s): Pradyumnasuri, Manikyasagar
Publisher: Agamoday Samiti

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Page 82
________________ ५ दायगु ६ म्मीसे ७ । अपरिणय ८ लित्त ९ छद्दिय १० एसणदोसा दस हवंति ॥ ९८ ॥ पिंडेसणा य सदा संखित्तोयरह नवमु कोडीसुं । न हणइ न किणइ न पयइ कारावणुअणुमईहिं नव ॥ ९९ ॥ कम्मुद्देसियचरमनिय पूई मीसं चरमपाहुडिया। अज्झोयर अविसोही विसोहिकोडी भवे सेसा ॥ ३००॥ इरिया १ भासा २ एसण ३ आयाणाइसु ४ तह परिहवणा ५। सम्मं जा उ पवित्ती सा समिई पंचहा एवं ॥ ३०१॥ पढममणिच्च १ मसरणय २ संसारो ३ एगया य ४ अन्नत्तं ५ । असुइत्तं ६ आसव ७ संवरो य ८ तह निजरा ९ नवमी ॥३०२॥ लोगसहावो १० बोही य दुल्लहा ११ धम्मसाहओ अरिहा १२ । एयाओ हुंति बारस जहक्कम भावणीयाओ ॥ ३०३ ॥ भिक्खुपडिमत्ति-मासाई सत्तंतो ७ पढमा ८ बि ९ तइय १० सत्तराइदिणा । अहराई एगराई भिक्खूपडिमाण बारसगं ॥३०४॥ स्थापनाऽग्रे लिख्यते(४)॥पढमसंघयणजुत्तो नवपुवी दसमवत्थुसुयकलिओ । जत्थऽथमियनिवासी दशैषणादोषा इति-शंकितं म्रक्षितं निक्षिप्तं पिहितं संहृतं दायक उन्मिश्रं । अपरिणतं लिप्तं छर्दितं एषणादोषा दश भवन्ति ॥२९८ ॥ पिंडैषणा च सर्वा संक्षेपेणावतरति नवसु कोटीषु । न हंति न क्रीणाति न पचति कारणानुमतिभ्यां नव ॥२९९ ॥ कर्मोद्देशिक चरमत्रिकं पूतिर्मिश्रं चरमप्राभतिका। अध्वपूरकं चाविशोधिः (कोटिः) विशोधिकोटिर्भवेत् शेषा ॥ ३०० ॥ ईर्याभाषैषणादानादिषु तथा परिष्ठापनायां । सम्यक या तु प्रवृत्तिः सा समितिः पंचधैव ॥३०॥ प्रथममनित्यत्वमशरण्यं च संसारं एकतां चान्यत्वं । अशुचित्वमाश्रवं संवरं तथा निर्जरा नवमी (भावयेत् ॥३०२॥ लोकस्वभावो बोधिदुर्लभा च धर्मस्य कथकोऽर्हन् । एता भवन्ति द्वादश यथाक्रमं भावनीयाः ॥३०३॥ भिक्षप्रतिमा इति-मासादिसप्तांताः प्रथमा द्वितीया तृतीया सप्तरात्रिंदिवा । अहोरात्रिकी एकरात्रिकी भिक्षुप्रतिमानां द्वादशकं ॥ ३४॥ प्रथमसंहननयुक्तो नवपूर्वी दशमवस्तुश्रुतकलितः । यत्रास्तमितनिवासी उपसर्गपरीषहाभीत: १.

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