Book Title: Vicharsar Prakaranam Cha
Author(s): Pradyumnasuri, Manikyasagar
Publisher: Agamoday Samiti

Previous | Next

Page 135
________________ १२६ निप्फन्नस्स य सम्म तस्स पइट्ठावणे विही एसो । सुहजोएण पवेसों आययणे ठाणठवणा य ॥३४॥ एयं नाऊण जणा! जिणिदबिबस्स. कुणह सुपइई । पावेह जेण जम्मणजरमरणविवज्जियं ठाणं ॥३५॥ अवहरइ रोगमारिं दुभिक्खं हणइ कुणइ सुहभावे । भावेण कीरमाणा सुपइट्ठा सयललोयस्स ॥ ३६ ॥ राया बलेण वड्डइ जसेण धवलेइ सयादसिमाए । पुन्नं बंधइ विउलं सुपइट्टा जस्स देसम्मि ॥३७ ॥ जिणहरगमणं जहसत्ति--निययविहवाणुरूवा पूआ गहिऊण सयणपरियरिओ। वचइ जिणिंदभवणं परिहरियासेसघरकम्मो ॥ ३८ ॥ सबालंकारक्सणाइं परिहिय पवराई छत्तथिधाई । मुत्तुण सीहदुवारे पविसइ कयउत्तरासंगो ॥३९॥ पूयत्तिविहिणा उ कीरमाणा सबाविय फलबई हवइ चिट्ठा । इहलोइयावि किंपुण जिणपूआ उभयलोगहिया ? ॥ ४० ॥ काले सुइभूएणं विसिट्टपुप्फाइएहिं विहिणा उ । सारथुइथुत्तगई जिणपूआ होइ निष्पन्नस्य च सम्यक् तस्य प्रतिष्ठापने विधिरेषः । शुभयोगेन प्रवेश: आयतने स्थानस्थापना च ॥ ३४ ॥ एतत् ज्ञात्वा जनाः! जिनेन्द्रबिम्बस्य कुरुत सुप्रतिष्ठाम् । प्राप्त येन जन्मजरामरणविवर्जितं स्थानम् ॥३५॥ अपहरति रोगमारिं दुर्भिक्षं हन्ति करोति शुभभावान् । भावेन क्रियमाणा सुप्रतिष्ठा सकललोकस्य ॥ ३६॥ राजा बलेन वर्द्धते यशसा धवलयति सकलदिग्भागान् । पुण्यं बध्नाति विपुलं सुप्रतिष्ठा यस्य देशे ॥ ३७ ॥ जिनगृहगमनं यथाशक्ति-निजकविभवानुरूपां पूजां गृहीत्वा स्वजनपरिकरितः । व्रजति जिनेन्द्रभवनं परिहृताशेषगृह कर्मा ॥ ३८ ॥ सर्वालडूगरवसनानि परिधाय प्रवराणि छत्रचिह्नानि । मुक्त्वा सिंहद्वारे प्रविशति कृतोत्तरासङ्गः ॥ ३९॥पूजेति-विधि ना तु क्रियमाणा सर्वाऽपि च फलवती भवति चेष्टा । इहलौकिक्यपि किं पुनर्जिनपूजा उभयलोकहिता? ॥ ४० ॥ काले शुचिभूतेन विशिष्टपुष्पादिकैर्विधिना तु । सारस्तुतिस्तोत्रगुर्वी जिनपूजा भवति क

Loading...

Page Navigation
1 ... 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190