Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Tattvaprabhvijay
Publisher: Jinprabhsuri Granthmala
View full book text
________________
मा गल्यश्व इव कशां, वचनम् इच्छेत् पुनः पुनः ।। कशाम् इव दृष्ट्वा आकीर्णः, पापकं परिवर्जयेत् ।।१२।। अणासवा थूलवया कुसीला,
मिउंपि चण्डं पकरंति सीसा । चित्ताणुया लहु दक्खोववेया,
पसायए ते हु दुरासयंपि ।।१३।। अनाश्रवाः स्थूलवचसः कुशीलाः
- मृदुमपि चण्डं प्रकुर्वन्ति शिष्याः | चित्तानुगा लघु दाक्ष्योपपेताः,
प्रसादयेयुः ते हु दुराशयमपि ।।१३।। ना पुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए । कोहं असच्चं कुविज्जा, धारिज्जा पियमप्पियं ।।१४।। नापृष्टो व्यागृणीयात् किंचित्, पृष्टो वा नालीकं वदेत् । क्रोधम् असत्यं कुर्वीत, धारयेत् प्रियमप्रियम् ।।१४।। अप्पा चेव दमेयव्यो, अप्पा हु खलु दुद्दमो । अप्पा दन्तो सुही होइ, अस्सिं लोए परत्थ य ।।१५।।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org
![](https://s3.us-east-2.wasabisys.com/jainqq-hq/32ebf774d0021af1e2b3a04ea43f4e2219cf3586843f52efc1ccbc74a763e2bd.jpg)
Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 144