Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Tattvaprabhvijay
Publisher: Jinprabhsuri Granthmala
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यथा शुनी पूतिकर्णी, निष्कास्यते सर्वतः । एवं दुःशील प्रत्यनीकः मुखरी निष्कास्यते ।।४।। कणकुंडगं चइत्ताणं, विटुं भुंजइ सूयरो । . एवं सीलं चइत्ताणं, दुस्सीले रमइ मिए ||५|| कणकुण्डकं त्यक्त्वा खलु, विष्टां भुङ्क्ते सूकरः । एवं शीलं त्यक्त्वा खलु, दुःशीले रमते मृगः ।।५।। सुणियाऽभावं साणस्स, सूयरस्स नरस्स य । विणए ठविज्ज अप्पाणं, इच्छंतो हियमप्पणो ।।६।। श्रुत्वाऽभावं शून्याः सूकरस्य नरस्य च । विनये स्थापयेद् आत्मानं, इच्छन् हितमात्मनः ।।६।। तम्हा विणयमेसिज्जा, सीलं पडिलभेज्जओ | बुद्धपुत्ते नियागट्ठी न, निक्कसिज्जइ कण्हुइ ।७।। तस्माद् विनयमेषयेत्, शीलं प्रतिलभेत यतः ।। बुद्धपुत्रो नियागार्थी न, निष्कास्यते कुतश्चित् ।।७।। निसंते सियाऽमुहरी, बुद्धाणं अंतिए सया । अट्ठजुत्ताणि सिक्खिज्जा, निरट्ठाणि उ वज्जए ||८||
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