Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Tattvaprabhvijay
Publisher: Jinprabhsuri Granthmala

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Page 10
________________ | श्री विनयश्रुत अध्ययन-१ ॥ संजोगा विप्पमुक्कस्स, अणगारस्स भिक्खुणो । विणयं पाउकरिस्सामि, आणुपुब्बिं सुणेह मे 11१|| संयोगाद् विप्रमुक्तस्य, अनगारस्य भिक्षोः ।। विनयं प्रादुष्करिष्यामि, आनुपूर्वी शृणुत मे ।।१।। आणाणिद्देसकरे, गुरूणमुववायकारए । इंगियागारसंपण्णे, से विणीए त्ति वुच्चइ ।।२।। आज्ञा निर्देशकरः, गुरूणामुपपातकारकः । इङ्गिताकारसम्पन्नः, स विनीत इत्युच्यते ।।२।। आणाऽणिद्देसकरे, गुरूणमणुववायकारए । पडिणीए असंबुद्धे, अविणीए त्ति वुच्चइ ।।३।। आज्ञाऽनिर्देशकरो, गुरूणामनुपपातकारकः । प्रत्यनीकोऽसंबुद्धः, अविनीत इत्युच्यते ।।३।। जहां सुणी पूइकण्णी, निक्कसिज्जइ सव्वसो । एवं दुस्सील पडिणीए मुहरी निक्कसिज्जइ ||४|| Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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