Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 01
Author(s): Tattvaprabhvijay
Publisher: Jinprabhsuri Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 12
________________ निशान्तः स्यात् अमुखरः बुद्धानाम् अन्तिके सदा । अर्थ-युक्तानि शिक्षेत निरर्थानि तु वर्जयेत् ।।८।। अणुसासिओ न कुप्पिज्जा खंतिं सेविज्ज पंडिए । खुड्डेहिं सह संसग्गिं, हासं कीडं च वज्जए ।।९।। अनुशिष्टो न कुप्येत्, क्षान्तिं सेवेत पण्डितः । क्षुद्रैः सह संसर्ग, हासं क्रीडां च वर्जयेत् ।।९।। मा य चण्डालियं कासी, बहुयं मा य आलवे । कालेण य अहिज्जित्ता, तओ झाइज्ज एगओ ।।१०।। मा च चण्डालीकं कार्षीद्, बहुकं मा च आलपेत् । कालेन चाधीत्य, ततो ध्यायेत् एककः ।।१०।। आहच्च चण्डालियं कट्ट, न निण्हविज्ज कयाइवि । कडं कडेत्ति भासेज्जा, अकडं नो कडेत्तिय ||११|| कदाचित् चाण्डालिकं कृत्वा, न निह्नवीत कदाचिदपि । कृतं कृतमिति भाषेत, अकृतं नो कृतमिति च ।।११।। मा गलियस्सेव कसं, वयणमिच्छे पुणो पुणो | कसं व दट्टमाइन्ने, पावगं परिवज्जए ||१२|| Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 144