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कथानायक जीव मोहप्लावित होकर, अकरणीय, अशोभनीय, लज्जनीय, जघन्यतम कुकृत्य/दुष्कर्म पापों का आचरण करता है, जनसमूह को त्रस्त एवं पीड़ित करता है। उस समय जब सद्धर्माचार्यों से पूछा जाता है-'भगवन् ! यह अधमाचरण क्यों करता है ?' प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य भगवान् या केवली कहते हैं :'इसमें इसका/आत्मा का कोई दोष नहीं है । यह तो पूर्णरूपेण निर्दोष है, निर्मलतम है, पवित्र है। यह तो मोहराज का जाल है। मोहराज के सेनानियों-क्रोधादि चार कषायों, पांचों इन्द्रियों के विकारों तथा भवितव्यता के जाल में फंसा हया प्राणी है । इनसे जकड़ा हुआ है और आक्रान्त है । ये दुर्गुण ही इसको अग्रसर बनाकर, इसके परम हितैषी बनकर, इसके माध्यम से अपने अधमाधम कार्यों की सिद्धि करते हैं और प्राणी को भवचक्र में परिभ्रमण कराते हैं । वस्तुतः इन कार्यों में इसका कोई दोष नहीं है।' अन्त में उपसंहार में कहते हैं-'भव्यजनों! यह प्राणी घृणा योग्य नहीं है, अपितु इसमें व्याप्त दुर्गुण ही हेय हैं, घृणा करने योग्य हैं, त्याज्य हैं । भवमुक्त होने के लिये इन दुर्गुणों का त्याग करो।' अन्य संस्करण
गद्य-पद्यात्मक यह चम्पूकाव्य विशालकाय ग्रन्थ है। अनुष्टुब श्लोक पद्धति से इसका श्लोक परिमाण १६००० (सोलह हजार) है। रचना शैली प्रांजल, वैदग्ध्यपूर्ण और उपमानात्मक होने से इसका अध्ययन करना, विषय गाम्भीर्य और रहस्य को समझना प्रत्येक के लिये सुकर नहीं है ; अतः परवर्ती ग्रन्थकारों ने इसके सारांश के रूप में भी कृतियों का निर्माण किया है । वे हैं
१. उपमिति-भव-प्रपंचा नाम समुच्चय : कर्ता खरतरगच्छ संस्थापक वर्द्धमानसूरि : समय ११वीं शताब्दी (१०६० से १०८०) यह कृति प्रकाशित हो चुकी है।
इसी का संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद श्री कस्तरमलजी बांठिया ने किया था जो श्री जिनदत्तसूरि मण्डल, अजमेर से प्रकाशित हो चुका है।
२. उपमिति-भव-प्रपंच कथा सारोद्धार : चन्द्रगच्छीय श्री देवेन्द्रसूरि : र० सं० १२६८ : श्लोक परिमाण ५७३० : यह कृति केसरबाई ज्ञान मन्दिर, पाटण से सं० २००६ में प्रकाशित हो चुकी है।
इसी का गुजराती अनुवाद श्री मंगलविजयजी गणि ने किया है। यह अनुवाद तीन भागों में श्री वर्धमान जैन तत्त्व ज्ञान प्रचारक विद्यालय, शिवगंज से सं० २०२३ में प्रकाशित हो चुका है ।
३. उपमितिभवप्रपंचाकथोद्धार : हंसरत्न : इसको एक मात्र प्रति डेला उपाश्रय ज्ञान भण्डार, अहमदाबाद में प्राप्त है । कृति अप्रकाशित है।
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