Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2 Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur View full book textPage 7
________________ के प्रबल समर्थक बन गये तथा पुनः जैन श्रमणत्व स्वीकार किया। यही कारण है कि वे श्रद्धासिक्त हृदय से कहते हैं :-- प्राचार्यो हरिभद्रो मे धर्मबोधकरो गुरुः । प्रस्तावे भावतो हन्त स एवाद्य निवेदितः ।। 1012 विषं विनिर्धूय कुवासनामयं, व्यचीचरद् यः कृपया मदाशये । अचिन्त्यवीर्येण सुवासनासुधां, नमोऽस्तु तस्मै हरिभद्रसूरये ।। 1013 अनागतं परिज्ञाय चैत्यवन्दनसंश्रया । मदर्थंव कृता येन वृत्तिललितविस्तरा ॥ 1014 उपमिति-भव-प्रपंच कथा-ग्रन्थकर्ता-प्रशस्ति __ अर्थात् प्राचार्य हरिभद्रसूरि मेरे धर्मबोधकारक गुरु हैं। इस बात का मैंने प्रथम प्रस्ताव में ही निवेदन/संकेत कर दिया है। १०१२ । श्री हरिभद्रसूरि ने कुवासना से व्याप्त विष का प्रक्षालन कर, मेरे लिये अचिन्तनीय वीर्य के प्रयोग से कृपापूर्वक सुवासना रूप अमृत का निर्माण किया ऐसे आचार्य श्री को नमस्कार हो । १०१३ । अनागत काल का परिज्ञान कर जिन्होंने मेरे लिये ही चैत्यवन्दन से सम्बन्धित सूत्र पर ललितविस्तरा नामक वृत्ति की रचना की । १०१४ । सिद्धर्षि के व्यक्तित्व और कृतित्व के सम्बन्ध में श्री मोतीचन्द गिरधरलाल कापड़िया ने ५८-५९ वर्ष पूर्व विस्तृत अध्ययन के रूप में "श्री सिद्धषि" नामक ५०० पृष्ठों की पुस्तक लिखी थी, जो जैन धर्म प्रसारक सभा, भावनगर से प्रकाशित हुई थी। साथ ही प्रस्तुत पुस्तक में भूमिका के रूप में श्री देवेन्द्रमुनि जी शास्त्री ने विविध आयामों के आलोक में लेखक के व्यक्तित्व और कृतित्व पर समीक्षात्मक दृष्टि से प्रकाश डाला है। अतः लेखक के जीवन के सम्बन्ध में कुछ भी कहना पिष्टपेषण मात्र होगा। श्री सिद्धर्षि ने इस रूपकात्मक कथा ग्रन्थ की रचना ज्येष्ठ शुक्ला ५ गुरुवार वि० सं० ६६२ में भिन्नमाल में रहते हुए की थी। इसके अतिरिक्त लेखक की तीन कृतियाँ और प्राप्त हैं :-- १. श्रीचन्द्रकेवली चरित्र र० सं० १७४. २. उपदेशमाला बृहद्वृत्ति एवं लघुवृत्ति ३. न्यायावतार टीका इन रचनाओं के आधार से स्पष्ट है कि लेखक का काल १०वीं शती का है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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