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सम्पादकीय
सिद्धव्याख्यातुराख्यातु महिमानं हि तस्य कः ? समस्त्युपमिति म यस्यानुपमितिः कथा ।
मरुधरा/राजस्थान प्रदेश का यह परम सौभाग्य रहा है कि शताधिक ग्रन्थ प्रणेता प्राप्त टीकाकार उद्भट दार्शनिक याकिनी महत्तरासूनु प्राचार्य हरिभद्रसूरि (हवीं शती, चित्तौड़), कुवलयमाला कथाकार दाक्षिण्यचिह्नांक उद्योतनसूरि (हवीं शती, जालौर), शिशुपालवध महाकाव्य के प्रणेता महाकवि माघ (भिन्नमाल), उपमिति-भव-प्रपंच कथाकार विद्वत् शिरोमणि सिद्धर्षि गरिण (१०वीं शती, भिन्नमाल), सनत्कुमार-चक्रिचरित महाकाव्यकार जिनपालोपाध्याय (१३वीं शती, पुष्कर), मुहम्मद तुगलक प्रतिबोधक विविधतीर्थकल्पादि ग्रन्थों के रचयिता जिनप्रभसूरि (१४वीं शती, मोहिलवाड़ी), अष्टलक्षीग्रन्थकार महाकवि समयसुन्दर (17वीं शती, सांचोर), मस्तयोगी आनन्दघन (१७वीं शती, मेड़ता), भक्तिमती परमयोगिनी मीरां (१७वीं शती, मेड़ता) आदि शताधिक साहित्यकारों की यह जन्मस्थली, क्रीड़ास्थली और कर्मस्थली रही है। आज भी इनकी यशोपताका/कीर्तिगाथा भारतीय गगन में ही नहीं, अपितु दिग्-दिगन्त तक धवलता के साथ फहरा रही है, प्रसर रही है।
इन्हीं विशिष्ट साहित्यकारों में सिद्धव्याख्याता सिद्धर्षि गरिण का नाम भी साहित्य जगत् में अनामिका की तरह उटैंकित है और इनकी उपमिति-भव-प्रपंच कथा नामक कृति अमर कृति है । इनकी जीवन-गाथा के सम्बन्ध में राजगच्छीय श्री प्रभाचन्द्रसूरि ने सं. १३३४ में रचित प्रभावकचरित में परम्परागत श्रति के आधार पर 'सिद्धर्षि प्रबन्ध' में प्रालेखन किया है । डॉ. हर्मन जैकोबी के मतानुसार सिद्धर्षि प्रबन्ध के अनुसार-ये माघ कवि के चचेरे भाई थे----का वर्णन इतिहास-सम्मत नहीं है।
अन्तः साक्ष्य के अनुसार निम्न घटना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि सिद्धर्षि बौद्ध-दर्शन एवं बौद्ध श्रमण-चर्या के प्रति अत्यन्त अनुरक्त होते हुए भी गुरु को प्रदत्त वचनानुसार जब गुरु दुर्गाचार्य के समीप आये, उस समय गुरु के यहाँ पर रखी हुई प्राचार्य हरिभद्रसूरि की चैत्यवन्दन सूत्र पर ललितविस्तरा टीका का उन्होंने आद्यन्त अवलोकन किया, तो उनके नेत्र खुल गये और जैन दर्शन एवं जैन श्रमणचर्या
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