Book Title: Upmiti Bhav Prakasha Katha Part 1 and 2 Author(s): Siddharshi Gani, Vinaysagar Publisher: Rajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur View full book textPage 4
________________ प्रकाशकीय प्राकृत भारती पुष्प ३१-३२ के रूप में उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा के प्रथम हिन्दी अनुवाद को राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान, जयपूर, सम्यग् ज्ञान प्रचारक मण्डल, जयपुर, और सेठ मोतीशाह रिलीजियन्स एण्ड चेरीटेबल ट्रस्ट, भायखलाबम्बई द्वारा संयुक्त प्रकाशन के रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए हमें हार्दिक हर्ष है। ऐतिहासिक एवं साहित्यिक दृष्टि से यह ग्रन्थ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । उद्भट विद्वान् श्री सिद्धर्षि गणि द्वारा लिखित संस्कृत भाषा का यह ग्रन्थ १०वीं शताब्दी का है। रूपक के रूप में इतना बड़ा ग्रन्थ सम्भवतः पूर्व में या पश्चात् काल में नहीं लिखा गया। इसकी रचना शैली भी वैशिष्ट्यपूर्ण है। धर्म जो सीमित दायरे से विस्तृत मानव-धर्म के स्तर का है, उसके विभिन्न पहलुओं को रूपक/उपमाओं के माध्यम से मनोवैज्ञानिक एवं रुचिकर रूप में प्रस्तुत किया गया है, जो मूल लेखक के बहु आयामी व्यक्तित्व एवं अनुभवों के कारण ही सम्भव हुआ है । सिर्षि गरिण प्रारम्भ में गृहस्थ थे। उनका प्रारम्भिक जीवन अत्यधिक विषयासक्ति का था। माता और पत्नी का उलाहना सुनकर, आक्रोश में उन्होंने घर छोड़ दिया। अपने समय के प्रमुख विद्वान् जैन श्रमरण दुर्गस्वामी के प्रतिबोध से जैन श्रमण बने और धर्म तथा दर्शन का व्यापक एवं तुलनात्मक अध्ययन किया । बाद में बुद्धधर्म की ओर आकर्षित हुए तथा बुद्ध श्रमण भी बन गये । पर, अपने मूल गुरु को दिये गये वचन के अनुसार वापस उनके पास आये और पुनः प्रतिबोध प्राप्त कर जैन श्रमरण बने। ___इस प्रकार जीवन के विभिन्न पक्षों को सघन रूप से जीने और त्यागने वाले सिद्धर्षि गरिण जैसे संवेदनशील विद्वान् व्यक्ति ही ऐसे अद्भुत ग्रन्थ की रचना कर सकते थे । भारतीय दर्शन एवं जैन साहित्य के प्रमुख/मर्मज्ञ विद्वान् डॉ० हर्मन जैकोबी (जर्मन) को इस ग्रन्थ ने इतना अधिक प्रभावित किया कि उन्होंने इस ग्रन्थ को भारतीय संस्कृत साहित्य का एक मौलिक एवं अद्वितीय ग्रन्थ बताया तथा मूल ग्रन्थ को सम्पादित कर प्रकाशित करवाया। बाद में जर्मन भाषा में इसका अनुवाद भी हुआ । ६० वर्ष पूर्व श्री मोतीचन्द गिरधरलाल कापडिया द्वारा अनुदित गुजराती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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