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अध्यात्म का सिद्धान्त स्थापित हुआ-जैसे-जैसे सेवन करो, तुम्हारी अतृप्ति और बढ़ती चली जायेगी। वह न करो तो अतृप्ति का विकल्प रहेगा। सेवन करो, अतृप्ति बढ़ती चली जायेगी। यह परतृप्ति का समारोप है।
यथार्थ के धरातल पर सोचे-सामाजिक व्यक्ति परिग्रह से मुक्त नहीं हो सकता। यह निश्चित सिद्धान्त है। पदार्थ से मुक्त नहीं हो सकता और परिग्रह से भी मुक्त नहीं हो सकता। एक संन्यासी के लिए, साधु के लिए एक विकल्प आता है कि वह पदार्थ से मुक्त तो नहीं हो सकता पर परिग्रह की चेतना से मुक्त हो सकता है। किन्तु एक सामाजिक प्राणी के लिए पदार्थ से मुक्त होना और ममत्व की चेतना से मुक्त होना या संग्रह से मुक्त होना दोनों संभव नहीं है। फिर प्रश्न उलझ गया कि यदि एक सामाजिक प्राणी पदार्थ से मुक्त नहीं हो सकता और धन से भी मुक्त नहीं हो सकता तो फिर अपरिग्रह की चर्चा अर्थहीन है? इसका समाधान किया गया-यह चर्चा अर्थहीन नहीं है। अपरिग्रही नहीं हो सकता किन्तु परिग्रह की सीमा करना इसके लिए अनिवार्य है, इच्छा परिमाण इसके लिए आवश्यक है।
एक सुन्दर शब्द का चयन हुआ-इच्छा का परिमाण। पदार्थ का परिमाण, संग्रह का परिमाण और उपभोग का परिमाण-ये परस्पर जुड़े हुए हैं। यदि उपभोग की सीमा नहीं है तो पदार्थ की सीमा नहीं हो सकती। पदार्थ की सीमा नहीं है तो परिग्रह की सीमा नहीं हो सकती। उपभोग के लिए बहुत पदार्थ चाहिए तो इसके लिए बहुत धन भी चाहिए। इसे रोका नहीं जा सकता। सबसे पहले अपरिग्रह पर विचार करें तो उपभोग पर विचार होना चाहिए। उपभोग की सीमा हो। मैं इतने से ज्यादा वस्तुओं का उपभोग नहीं करूंगा। पर्यावरण का सिद्धान्त है कि पदार्थ कम हैं, उपभोक्ता ज्यादा। वस्तु कम है और खाने वाले ज्यादा। संघर्ष अनिवार्य है। युद्ध भी अनिवार्य है। हिंसा अनिवार्य है, रोका नहीं जा सकता। हम संग्रह पर विचार करने से पहले विचार करें उपभोग पर। कितना अनावश्यक उपभोग होता है पानी का, आज के वातावरण में बिजली का, खाद्य वस्तुओं का, कपड़ों का और भी अनेक पदार्थो का। अनावश्यक उपभोग की कोई सीमा नहीं है। यदि कोई अच्छे परिणाम की साधना करना चाहता है, अपरिग्रह की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाना चाहता है तो इसके लिए संग्रह की सीमा करने से पहले उपभोग की सीमा करना आवश्यक होगा। उपभोग सीमित है तो पदार्थ की अपेक्षा सीमित हो जायेगी। पदार्थ की अपेक्षा सीमित है तो इच्छा अपने आप सीमित हो जायेगी। ___ हम सीधा इच्छा को पकड़ें और इसका परिणाम पाना चाहें, बहुत कठिन बात है। उपभोग की लालसा प्रबल, उपभोग की पूर्ति के लिए पदार्थ की लालसा प्रबल और इधर इच्छा का परिणाम करें तो एक अन्तर्द्वन्द्व पैदा होगा। इस समस्या पर अधिक ध्यान आकृष्ट होना जरूरी है। आज हम निर्धारित करें-श्रावक की आचार संहिता का पहला व्रत होना चाहिए- उपभोग का परिमाण। दूसरा व्रत होना चाहिए- अनर्थ हिंसा का परिमाण। मैं प्रयोजन बिना हिंसा नहीं करूंगा।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 141
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