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वैसे प्रयोजन बहुत लम्बा-चौड़ा हो सकता है किन्तु जिसकी जीवन के लिए अनिवार्यता है, आवश्यकता है, इसकी पूर्ति के लिए हिंसा हो जाती है। इसके सिवाय नहीं करूंगा और इससे ज्यादा परिग्रह का संग्रह नहीं करूंगा। हम इस क्रम से चलें, उपयोगिता की दृष्टि से चलें कि हमें उपभोग की सीमा करनी है। अनावश्यक हिंसा, अप्रयोजन की हिंसा की सीमा करनी है। इसके साथ प्राप्त है तीसरा व्रत पदार्थ के संग्रह की सीमा । इतने से ज्यादा पदार्थो का संग्रह नहीं करूंगा। इतने परिमाण से ज्यादा धन नहीं रखूंगा। इससे फलित होगा- इच्छा का परिमाण। यह नहीं होता है तो इस अवस्था में परिग्रह की चेतना, ममत्व की चेतना या भोगोपभोग की चेतना व्यक्ति को आचार से दूर ले जाती है, सामाजिक हित और समाज व्यवस्था से भी दूर ले जाती है।
प्रश्न व्याकरण का एक सूत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है- एक व्यक्ति झूठ बोलता है, मायाचार करता है, मिलावट करता है, झूठा तौल -माप करता है, नकली वस्तु बेचता है। यह सारा किसलिए करता है? परिग्रह के लिए करता है, अधिक धन अर्जन के लिए करता है। सत्य का भी बहुत गहरा सम्बन्ध है अपरिग्रह के साथ और परिग्रह का बहुत गहरा सम्बन्ध है मिथ्या या असत्य भाषण के साथ, असत्य आचरण के साथ। झूठ बोलने के चार कारण बतलाये- इनमें लोभ प्रमुख कारण है। लोभवश मनुष्य झूठ बोलता है, मायाचार करता है। यह सब परिग्रह के लिए होता है। परिग्रह की चेतना का परिष्कार ममत्व की चेतना का परिष्कार किया जाता है तो शायद आचार की बहुत सारी समस्याएं अपने आप सुलझती हैं। ऐसा लगता है कि केन्द्र में परिग्रह बैठा है, ममत्व बैठा है। पदार्थ मेरा है, यह स्वीकार हिंसा को भी बढ़ावा देता है, असत्य को भी बढ़ावा देता है, चोरी भी होती है और अब्रह्मचर्य की बात को भी आगे बढ़ाता है। पदार्थ मेरा है- इस चेतना का परिष्कार जरूरी है।
पदार्थ मेरा नहीं है और पदार्थ मेरा है- इन दो प्रश्नों पर हम विचार करें। भेद विज्ञान पुष्ट होगा तो अनुभव होगा पदार्थ मेरा नहीं है। पदार्थ के प्रति आसक्ति है, इसीलिए इसे अपना मान लिया। वस्तुतः वह मेरा नहीं है। 'मेरा तन' - यह हमारी मति में है तो फिर सारी समस्याएं पैदा हो जाती हैं। स्थूल दृष्टि से वस्तु को त्यागने पर बल दिया जाता है और इसे प्राथमिक मानना चाहिए। आचार की समस्या इसीलिए उलझी रही है और इसीलिए धर्म की तेजस्विता भी कम हुई है कि त्याग पदार्थ के साथ जुड़ गया। त्याग जुड़ना चाहिए था पदार्थ की चेतना के साथ। 'मेरापन ' - यह नम्बर दो की समस्या पैदा करता है किन्तु यह मेरेपन की चेतना है, यह नम्बर एक की समस्या है। पदार्थ की चेतना का परिष्कार करने के लिए यह भेद विज्ञान का सिद्धान्त, 'मेरा नहीं है' यह सिद्धान्त
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आवश्यक है। आचार शास्त्र में इसके प्रति हमारा दृष्टिकोण कम है और इस पर बल भी कम दिया जाता है। भेद विज्ञान की चेतना को जगाये बिना पदार्थ को छोड़ना भी कैसे संभव हो सकता है ? हमारा सारा भोग्य जगत है- शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्शात्मक। ये हमारे विषय हैं भोग्य पदार्थ त्याग करने की जो प्रथा है, इसका प्रारूप हैं- मैं शब्द नहीं सुनूंगा, मैं अमुक रस का सेवन
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2008
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