________________
पुरुषार्थ एवं वीरता से कापालिक को परास्त कर कालिका देवी को प्रसन्न करता है और वरदान
बलि नहीं चढ़ाने की बात करता है और देवी मान जाती है। हिंसा को तटस्थ भाव से देखने के अनेक दुष्परिणाम होते हैं, पार्श्वनाथ चरित में तो यहां तक कहा है कि बलवीर को उसके भाइयों द्वारा बार-बार मारने का प्रयास करने पर भी वह बच जाता है। इस पर मुनि इसके पूर्व भव का बताते हैं कि तुम छः मित्र थे, उसमें से एक मित्र ने पक्षियों को तीर से बार-बार मारने का प्रयास किया। किन्तु वे बच गये पर पांच अन्य मित्र उस हिंसा को चुपचाप देखते रहे। किन्तु समीपस्थ मुनि ने रोका और उपदेश दिया, अतः तुम भी बार-बार बचे हो, तुम्हारे मित्र जो हिंसा को तटस्थ भाव से देख रहे थे वे तुम्हारी पत्नियां हैं। एक मुनि जिन्होंने हिंसा को रोका था, वह मुनि मैं ही हूँ। अतः हिंसा को 'चुपचाप देखने का भी भयंकर परिणाम होता है। इस प्रकार वे पांचों अनेक तिर्यंचादि योनियों को पार करते हुए स्त्री पर्याय में आये और तुम्हारी पत्नियाँ बनीं।
एक छोटी सी काल्पनिक हिंसा भी कितनी भयंकर दुष्परिणाम देती है, यशोधर राजा के पूर्वभव के दृष्टान्त के रूप में यह बताया गया है। आटे का मूर्गा बनाकर मारा था जिसमें उसे उसकी माँ ने भी सहयोग दिया था। ऐसी कथित हिंसा के कारण इन दोनों को तिर्यंचादि योनियों में भटककर मनुष्य योनि में आना पड़ा। एक छोटी-सी काल्पनिक हिंसा का कितना दुष्परिणाम होता है, इसका मर्म कथा में समझाया गया है।
रात्रि भोजन भी हिंसा को दावत देती है। रात्रि भोजन के दुष्परिणाम के रूप में हंस और केशव की कथा है। जिसमें केशव ने रात्रि भोजन नहीं करने का व्रत धारण कर रखा था। अनेक कठिन से कठिन परिस्थिति में व्रत का पालन किया जिसके परिणामस्वरूप उसे अनेक प्रकार के सुख एवं राज्य की प्राप्ति हुई। उसके राज्य में रात्रि भोजन निषेध था।
उपर्युक्त कथाओं में जीव रक्षा, अहिंसा, हिंसा के चिंतन के दुष्परिणाम, सप्त व्यसनों के दुष्परिणाम, रात्रि भोजन के दुष्परिणाम, पशु-पक्षियों के द्वारा जीव रक्षा की भावना वाली सारी कथाओं में जीवन मूल्य भरा पड़ा है। प्राणी नैतिक एवं मानवीय गुणों से ओत-प्रोत हो जाता है। उपर्युक्त गुत्थियों को केवल कथन मात्र या उपदेश से गले नहीं उतारा जा सकता है। इन तत्त्वों को सरस कथाओं, दृष्टान्तों से ही हम इन गुत्थियों को आसानी से समझ सकते हैं और इनको जीवन में उतारा जा सकता है। केवल कहना या सुनना ही पर्याप्त नहीं होता है। इन्हें जीवन में जीना चाहिए। तभी हमारा जीवन सफल है। जीवन रक्षक सिद्धान्त कटु एवं तिक्त औषधि है पर ये कथाएं इन पर पड़ी हुई कंकर की तरह हैं। जिनको बिना किसी कठिनाई से गले उतारा जा सकता है और अपने जीवन का सर्वांगीण विकास संभव है। कथाओं से हम इन तत्त्वों को जीवन में सहजतः समझकर पाप-पथ से बच सकते हैं।
82
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
तुलसी प्रज्ञा अंक 141
www.jainelibrary.org