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जैसे ही रजोगुण के साथ सत्वगुण का विकास होता है वैसे ही प्राणी चल पाता है अर्थात् पृथ्वी को अंशतः छोड़ सकता है। यह त्रसजीवों की सृष्टि है। इनमें भी क्रमिक विकास है। जितने प्राण कम, पृथ्वी का संस्पर्श उतना कम और जितना पृथ्वी का संस्पर्श कम उतना आदित्य-प्राण अर्थात् ज्ञान का विकास अधिक। पृथ्वी का बिल्कुल स्पर्श नही हो तो यह विकास का उत्कृष्टतम रूप है। इस प्रकार प्राणियों का एक अन्य प्रकार से दूसरा रूप है1 सर्वथा पृथ्वी से सटे शरीर वाले पाषाणादि। 2 पृथ्वी से ऊपर उठने पर भी पृथ्वी पर पाँव उठाकर चलने में असमर्थ वनस्पतियाँ 3 पृथ्वी से ऊपर उठ कर चलने में समर्थ किन्तु पृथ्वी से अत्यधिक सटे हुए।उत्पाद कृमि जिनके
शरीर सौ पाँवों से पृथ्वी से जुड़े हैं। 4 इसी क्रम मे आठ पाँव वाली मकड़ी, छह पाँव वाली चींटी और चार पाँव वाले कीट आते
हैं। ये क्रमशः उत्तरोत्तर पृथ्वी से अधिकाधिक कम सम्पर्क वाले होते चले जाते हैं। 5 चतुष्पाद पशु जिनका शरीर चार पाँव के सहारे पृथ्वी से जुड़ा तो रहता है किन्तु फिर भी पृथ्वी
से कीटों की अपेक्षा बहुत ऊँचा उठ जाता है। 6 वानर जो चार पाँव पर चलता है किन्तु दो पाँवो पर भी खड़ा हो सकता है और चल भी
सकता है। 7 दो पाँवों पर भी चलने वाला मनुष्य । एक जिसका मस्तिष्क सभी प्राणियों की भाँति नीचे
पृथ्वी की ओर न रहकर सीधा क्षितिज की ओर हो जाता है अर्थात् न्यूनतम पार्थिव और अधिकतम आदित्य-प्राण से युक्त होने के कारण सर्वाधिक ज्ञान सम्पन्नता देव योनियाँ जो पृथ्वी को छूती ही नहीं और जिनमें मनुष्य से भी अधिक ज्ञान होता है।
ध्यातव्य यह है कि इन सबमें मनुष्य ही प्राकृतिक प्रवृत्तियों से ऊपर उठ सकने के कारण प्रकृति के चगुल से मुक्त हो सकता है। शेष सभी प्राणी केवल प्रकृति का अनुसरण करते हैं, उसका अतिक्रमण नहीं कर सकते। अतः वे मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं। इस प्रकार वैदिक तथा जैन परम्परा में जीवों के तारतम्य को दिखाते समय ज्ञान का न्यूनाधिक्य ही कसौटी बना है किन्तु जैनों ने इस न्यूनाधिक्य के नापने का मानदण्ड ज्ञानेन्द्रियों की संख्या को माना जो कि प्रत्यक्षगम्य एवं निर्विवाद है जबकि वैदिक परम्परा में इस न्यूनाधिक का एक अन्य आधार दिया गया- आदित्य प्राण की मात्रा। पार्थिव प्राण तमोगुण है, आदित्य प्राण सत्त्व गुण है। तमस् से सत्त्व की यात्रा प्राणियों के विकास की यात्रा है।
मूल प्रश्न पर आयें तो अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी आदि की स्थिति वैदिक परम्परा में तथा जैन परम्परा में कुछ अंशों में समान है किन्तु कुछ अशों में भिन्न भी है। दोनों परम्परायें इनमें चेतना मानती हैं। अतः दोनों यह भी मानते हैं कि इन्हें सुख-दुखः का अनुभव होता है। दूसरी ओर वैदिक
तुलसी प्रज्ञा अंक 141
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