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जल पर सफल हुआ जो शुद्ध (अर्थात् जैन शब्दादावली में सचित्त) था। उस नल का जल जिसमें क्लोरीन जैसे विजातीय तत्त्व रहते हैं (अर्थात् जो जैन शब्दावली में अचित्त है) उस जल पर यह प्रयोग सफल नहीं हुआ। यह तथ्य जैन - मान्यता से अद्भुत साम्य रखता है और तीर्थकर के सर्वज्ञ होने का एक अन्य पुष्ट प्रमाण बनता है । यद्यपि मैं व्यक्तिगत रूप से आगमोक्त वाक्यों की प्रमाणिकता को आधुनिक विज्ञान के प्रयोगों के आधार पर सिद्ध करने का पक्षधर नहीं हूँ। आगमप्रमाण एक स्वतन्त्र प्रमाण है जबकि आधुनिक विज्ञान प्रत्यक्ष - प्रमाण तथ अनुमान -प्रमाण अन्तर्गत आता है। आगम-प्रमाण को विज्ञान द्वारा प्रमाणित करने से न केवल आगम द्वितीय श्रेणी
प्रमाण बन जाता है अपितु विज्ञान से अभी तक सिद्ध न होने वाले आगमोक्त तथ्यों के प्रति सन्देह भी उत्पन्न करता है। आगम अतीन्द्रिय ज्ञान का भण्डार है, उनकी प्रमाणिकता को तो वह प्रत्यक्ष देख सकता है जो स्वयं अतीन्द्रिय ज्ञानी हों, हमें तो उस पर श्रद्धा ही रखनी चाहिये तथापि विज्ञान से कुछ आगमोक्त सत्य भी सिद्ध हो रहा हो तो विज्ञान का स्वागत है। शास्त्रीय भाषा में यह केवलान्वयी व्याप्ति है । जहाँ-जहाँ विज्ञान सिद्ध है वहाँ वहाँ आगम सत्य है, किन्तु यह व्यतिरेक व्याप्ति सत्य नहीं है कि जहाँ जहाँ विज्ञान सिद्ध है वहाँ वहाँ आगम सन्दिग्ध हैं। इस व्यतिरेक व्याप्ति के आग्रह के दुष्परिणाम का एक ज्वलन्त उदाहरण है कि फ्रायड के मनोविज्ञान सम्बन्धी अनुसंधान के निष्कर्षों के आधार पर अनेक लोक ब्रह्मचर्य की आगमोक्त महिमा पर प्रश्न-वाचक चिन्ह लगाया करते हैं।
अस्तु, प्रकृतमनुसरामः जैन परम्परा और वैदिक परम्परा हजारों वर्षों से साथ साथ फलती फूलती रही हैं। अतः यह जानना रोचक होगा कि षड्जीव निकाय के सम्बन्ध में वैदिक अवधारणा क्या है? डॉ सागरमल जैन ने इस सम्बन्ध में कुछ संकेत किया भी हैं। इस लेख में हम षड्जीव निकाय की वैदिक अवधारणा को थोड़ा विस्तार से बताना चाहेंगे।
वेद के अनुसार सारा अस्तित्व प्राण- युक्त है। ये प्राण ही देव कहलाते हैं- प्राणावै देवाः । प्राण ही देव हैं, यह बात वैदिक वाड्.मय में बारम्बार दोहरायी गयी है। प्राणों को अपने अनुकूल ढाल कर हम कुछ भी इष्ट साध सकते हैं। इसलिये वैदिक परम्परा में देवोपासना आर्थात् प्राणोपासना का इतना महत्व है कि चारों वेदों में देवोपासना ही देवोपासना हैं। वहाँ अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी, वनस्पति और त्रसजीवों की ही नहीं, आकाश (द्यौ) आदित्य आदि की भी स्तुति इन सबको देव मान कर की गयी है। दृष्टि यह है कि इन सबका एक तो दृश्य रूप है जिसे अधिष्ठाता देवता कहा गया है। स्तुति उन अधिष्ठाता देवताओं की है जो प्राणीरूप किंवा चेतन हैं।
यह तो प्रत्यक्ष गोचर है कि समस्त लौकिक अभ्युदय अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी, वनस्पति का ही प्रसार है। अतः इष्ट की प्राप्ति के लिये इनकी ही स्तुति की गयी है। यह वेद का अभ्युदयलक्ष्मी धर्म है। उपनिषद् का निःश्रेयस-लक्ष्मी धर्म इन देवों को गौण करता देता है और इन सबमें
तुलसी प्रज्ञा अंक 141
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