Book Title: Tulsi Prajna 2008 10
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 69
________________ नहीं करूंगा। यह आचार का एक अंग बन गया। मुख्यतः आचार का अंग है- विषय का जो विकार है, जो विकास की चेतना है, इसका पहले त्याग हो तो विषय का त्याग सुलभ होगा अन्यथा विषय को छोड़ा पर विषय के प्रति जो लालसा है, वह नहीं छूटी। हर बार चेतना सामने आती है और सताती है। गीता का एक सुन्दर और मार्मिक सूक्त है- रसवर्जं रसोप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते। रस को तो छोड़ दिया, पांच इन्द्रियों के जो विषय हैं, जिनके द्वारा हम भोग करते हैं, इनका त्याग कर दिया। शब्द सुनना बन्द कर दिया, रूप देखना बन्द कर दिया, आंखें बंद कर लीं, सूंघना बंद कर दिया, खाना भी छोड़ दिया- ये सब छोड़ दिया और रस नहीं छूटा तो विषय छूट गये पर विकार नहीं छूटा। इसीलिए दो शब्द जैन साहित्य में प्रमुख रहे - विषय और विकार। पांच इन्द्रियों के तैवीस विषय हैं और इनके विकार दो सौ चालीस । आचारशास्त्रीय दृष्टि से विमर्श करें तो हमें सबसे पहले विकार का बोध होना चाहिए, विकार की चेतना का परिष्कार करने की साधना होनी चाहिए। इसके साथ-साथ विषय का वर्जन होना चाहिए। अब अधूरी बात हो गई-विकार का परिष्कार करने की साधना नहीं है, केवल विषय को छोड़ने की बात है। न तो वह छूटता है और न विकार का विलय होता है। इसीलिए आज आचारशास्त्रीय दृष्टि से मीमांसा जरूरी है कि परिवर्तन क्यों नहीं आ रहा है ? साधना की तेजस्विता क्यों नहीं बढ़ रही है? एक महाव्रत या अणुव्रत का जो आचार है, वह मूर्तिमान क्यों नहीं हो रहा है? इसका कारण यही है कि वस्तु त्याग या पदार्थ त्याग प्रमुख बन गया। पदार्थ त्याग के साथ जो पदार्थ भोग की चेतना का परिष्कार होना चाहिए, वह बात बिल्कुल गौण हो गयी, अदृश्य जैसी हो गयी, इसीलिए अपरिग्रह, इच्छा-परिमाण समाज-व्यवस्था के लिए उपयोगी नहीं बन रहा है और शायद व्यक्ति के लिए भी उपयोगी नहीं बन रहा है। वर्तमान की समाज व्यवस्था में यदि उपभोग का सीमाकरण, पदार्थ के संग्रह का सीमाकरण और इससे फलित होने वाला इच्छा का परिमाण - ये तीन सूत्र जुड़ जाएं हैं तो अनेक समस्याओं का समाधान हो सकता है। बहुत ज्यादा संग्रह करने वाले लोग, बहुत ज्यादा उपभोग करने वाले लोग समस्या को गंभीर बना रहे हैं। आज यह पूरे समाज में देखा जा रहा है कि अमीर लोग कि प्रकार उपभोग करते हैं, कितना पदार्थों का संग्रह करते हैं, कितना इच्छाओं का विस्तार करते हैं। किसी राष्ट्र का नाम लेने की आवश्यकता नहीं है, किन्तु ऐसे अनेक राष्ट्र हैं जो जनसंख्या में तो बहुत कम हैं किन्तु दुनिया के पदार्थों का बहुत बड़ा भाग उपभोग में ले रहे हैं और इसीलिए समस्या पैदा हो रही हैं। वर्तमान की समस्या का बहुत बड़ा समाधान है - इच्छा-परिमाण । जब तक आप इच्छा परिमाण का पूरा परिवार नहीं समझेंगे, बहुत सार्थक नहीं होगा। इसका परिवार है पदार्थसंग्रह का सीमाकरण। जिस दिन इच्छा का सीमाकरण, उपभोग और पदार्थ की चेतना का परिष्कार जीवनशैला का अंग बन जाएगा, उस दिन व्यक्ति और विश्व शांतिपूर्ण जीवन का उच्छ्वास ले सकेगा। 64 Jain Education International For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञा अंक 141 www.jainelibrary.org

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