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प्राकृत साहित्य में अहिंसा सम्बन्धी कथाओं का
तुलनात्मक अध्ययन
डॉ. एच.सी. जैन
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहकर ही वह स्वार्थ के वशीभूत महान् लोभी, हिंसक एवं बर्बर हो जाता है। परिणामस्वरूप आतंकवाद, ईर्ष्या, द्वेष, वैमनस्य आदि भावनाओं को जन्म देता है। वह रक्षक नहीं, भक्षक बन जाता है। इसमें दानवीय प्रवृत्तियाँ जन्म लेने लग जाती हैं। सह-अस्तित्व एवं विश्वमैत्री की भावना खत्म हो जाती है। अतः अहिंसा से ही विश्वमैत्री संभव है। अहिंसा की कथा के निर्देश से पूर्व संक्षेप में अहिंसा का अर्थ समझना आवश्यक है। 'भगवती आराधना' में कहा है कि जीवों की सब प्रकार की हिंसा का त्याग अहिंसा है अर्थात् जो व्यक्ति सावध कार्य में दत्तचित्त है वहीं जीवन पर्यन्त सब जीवों की मन, वचन, काय से कृत, कारित, अनुमोदना से हिंसा नहीं करना अहिंसा है। हिंसा के महत्त्व को बताते हुए कहा है कि जीवों का घात ही अपना घात है। जीवों पर की गयी दया अपने पर ही की गयी दया है। जो एक बार जीवों का घात करता है, वह स्वयं अनेक जन्मों में मारा जाता है और जो एक जीव पर दया करता है वह स्वयं अनेक जन्मों में दूसरे जीवों के द्वारा रक्षा किया जाता है। इसलिए दुःख से डरने वाले मनुष्य को विषैले काटे की तरह हिंसा से बचना चाहिए।
इस प्रकार अन्य आचार ग्रन्थों में हिंसा के दुष्परिणाम एवं अहिंसा का महत्त्व दर्शाया गया है। आचारांग में कहा है - आरंभजं दुक्खमिणं अर्थात् यह सब दुःख आरंभज है यानि हिंसा से ही उत्पन्न होता है। भगवती आराधना में कहा है जैसे-जैसे अणु से छोटा कोई अन्य द्रव्य नहीं है और आकाश में बड़ा कोई नहीं है, वैसे ही अहिंसा से महान् कोई अन्य व्रत नहीं है। जैसे सब लोक में मेरू पर्वत सबसे ऊँचा है, वैसे ही शीलों और व्रतों में अहिंसा सबसे ऊंची है। - भगवती आराधना में अहिंसा व्रत के महत्त्व के रूप में यमपाल चाण्डाल की
कथा का संकेत दिया है-एक चतुर्दशी के दिन किसी को फाँसी न देने के एक अहिंसा तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2008
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