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आयुर्वेद
जैन आयुर्वेद साहित्य में चिकित्सा विज्ञान को प्राणावाय कहा गया है। भगवती सूत्र द्वितीय एवं षष्ठम भाग में द्वादशांग श्रुत के अंतर्गत प्राणावाय पूर्व की व्याख्या की है। कषाय पाहुण में भी आयुर्वेद के अंगों का उल्लेख है। आयुर्वेद जिन आठ अंगों की बात करता है, उसका वर्णन त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित नामक ग्रन्थ में औषधि विज्ञान के रस वीर पाक ज्ञान सहित अष्टांग आयुर्वेद की शिक्षा का उल्लेख है। जैनाचार्यों द्वारा प्रतिपादित प्राणावायावतरण की यह परम्परा आयुर्वेद की चरक संहिता एवं सुश्रुत संहिता से नवीन (Ascance) है।
प्राणावाय परम्परा के अंतिम ग्रन्थ कल्याण कारक (20/85) में अनेक ग्रंथों का नाम उल्लेख है। इसमें लिखा है कि पूज्यपाद ने शालाक्य तंत्र पर पात्र स्वामी ने शल्य तंत्र, सिद्धसेन ने विष और उग्र-ग्रह-शमन विधि का, दशरथ गुरु ने कार्य चिकित्सा पर, मेघनाथ ने बाल रोगों पर, सिंदनाद में वाजीकरण व रसायन पर वैद्यक ग्रन्थों की रचना की थी। इसी ग्रन्थ में आगे उल्लेखित किया गया है कि समन्तभद्र ने विस्तारपूर्वक आयुर्वेद के आठ अंगों पर ग्रन्थ की रचना की थी तथा उग्रादित्य ने संक्षेप में कल्याणकारक नामक ग्रन्थ की रचना की थी। कल्याणकारक का रचनाकाल 6ठीं शताब्दी माना जाता है। ___अहिंसावादी व शाकाहारी होने के कारण जैनाचार्यों ने आयुर्वेद विषयक ग्रन्थों में पूर्णतः
जैन सिद्धांत व धार्मिक नियमों का पालन किया है। इसका उदाहरण पद्मानंद महाकाव्य में जैन मुनि के कुष्ठ रोग उपचार का है। जैनाचार्यों द्वारा आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में अपनाये गये सिद्धांत पूर्णतः वैज्ञानिक हैं। जैन धर्म के प्रमुख सिद्धांत अनेकान्तवाद का प्रयोग भी आयुर्वेदिक विज्ञान से किया गया है। मद्य, मांस, मधु सेवन व रात्रि भोजन का निषेध तथा गर्म पानी का सेवन अहिंसा, तप, दान जैसे सिद्धांत के मूल में जो कारण है वह भी पूर्व वैज्ञानिक आयुर्वेद पद्धति पर आधारित है। रसायन विज्ञान
जैन शास्त्रों में परमाणु से आशय पुद्गल के इस सूक्ष्म रूप से है जिसे और विभाजित न किया जा सके अर्थात् जो एक प्रदेशीय है। आचार्य अकलंकदेव ने परमाणु को विशेषता बताते हुए कहा है कि सभी पुद्गल स्कन्ध परमाणुओं से बने हैं। ये नित्य व अविनाशी है और दृष्टि से देखे नहीं जा सकते, परमाणु में एक रस या गंध, एक वर्ण और दो स्पर्श होते हैं। जैन शास्त्रों के अनुसार अणु व परमाणु समानार्थक है और अंतिम रूप से अविभाज्य है। इनकी उत्पत्ति विघटन द्वारा होती है,' पौद्गलिक स्कन्ध व इसके परमाणुओं का रसायन में हमें वर्णन प्राप्त होता है। इससे भी प्रामाणिक विवेचन हजारों वर्ष पूर्व जैनाचार्यों ने किया था जिसमें आचार्य उमास्वामी का स्थान सर्वोपरि है। इन्होंने पुद्गल के गुण, भेद, पर्याय, परमाणु स्कन्ध (Molebule) इसके निर्माण की तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2008
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