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अनेकाजीवा पुढोसत्ताअनत्थसत्थपरिनयेन' ऐसा पाठ हमें मिलता है। इसका शब्दशः हिन्दी अर्थ है - पृथ्वी चित्त अर्थात् चेतनायुक्त कही गई है। पृथ्वीकायिक जीव अनेक हैं, उनकी पृथक्पृथक् सत्ता है, अन्यत्र इसे सत्थ शब्द से भी वाच्य बताया गया है। दशवैकालिक के इन वचनों से ऐसा लगता है कि आचारांग में जो पृथ्वी शस्त्र (पुढवीसत्थ) शब्द का प्रयोग हुआ था उसकी सजीवता व्याख्यायित करने के लिए ही है। दशवैकालिक में इसीलिए यह कहा गया है कि अन्यत्र उसे शस्त्र शब्द से भी वाच्य कहा गया है। यहाँ पृथ्वी, अप्, तेजस् और वायु - इन चारों को ही स्पष्ट रूप से सजीव बताया गया है और यह भी कहा गया है कि अन्यत्र अर्थात् आचारांग में उन्हें जो शस्त्र कहा गया है वह उनकी सजीवता का वाचक है। स्वयं आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के सप्तम उद्देशक के अन्त में भी षट्जीवनिकाय शब्द का निर्देश है। यहाँ जीव+निः+काय में काय शब्द है वह काय के जीवत्व का वाचक है। आचारांग में इनके लिए शस्त्र शब्द का प्रयोग हुआ है, इसकी पुष्टि दशवैकालिक करता है। इससे सिद्ध होता है कि दशवैकालिक सूत्र आचारांग की दृष्टि का समर्थक हैं। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि उत्तराध्ययन सूत्र में भी पृथ्वी, अप्, वायु और अग्नि के जीवों के प्रकारों की भी चर्चा हुई है और यह भी कहा गया है कि ये चारों प्रकार के जीव सूक्ष्म
और स्थूल दोनों प्रकार के हैं। पृथ्वीकायिक आदि सूक्ष्म जीव तो लोक में ठसाठस भरे हुए हैं, यद्यपि ये हमें दिखाई नहीं देते हैं। जैन दार्शनिक सूक्ष्म और स्थूल दोनों प्रकार के पृथ्वीकायिक आदि जीवों को प्रसिद्ध करता है। यद्यपि यहाँ यह स्पष्ट रूप से समझ लेना आवश्यक है कि पृथ्वीकायिक जीव, अप्कायिक जीव, तेजस्कायिक जीव और वायुकायिक जीव चाहे वे सूक्ष्म हों अर्थात् मानवीय आँखों से दृश्य न हो अथवा स्थूल हों, दोनों ही जीवन से युक्त होते हैं।
यहाँ यह प्रश्न उठता है कि जब विज्ञान और अन्य दर्शन उन्हें निर्जीव मान रहे हैं तो उनमें जीवन की सिद्धि किस प्रकार की जाए ? इस सम्बन्ध में मेरा तर्क अन्य लोगों से कुछ भिन्न है। अन्य चिन्तकों के मुझसे भिन्न तर्क भी हो सकते हैं किन्तु मेरा तर्क जिस ठोस आधार पर खड़ा हुआ है, वह वैज्ञानिक है। सर्वप्रथम मेरी मान्यता यह है कि पृथ्वी अप आदि तभी सजीव हैं। जब वे किसी जीव के काय रूप में परिणत है, इसके विपरीत यदि कोई जीव जब उस कार्य का परित्याग करा देता है तो वह पृथ्वी आदि रूप काय निर्जीव हो जाती है अर्थात् जीव द्वारा गृहीत पृथ्वी तत्त्व जिसे उसने अपने शरीर के रूप में परिणत किया है, जीवित है और जीवों द्वारा व्यक्त शरीर में रहा हुआ पृथ्वी तत्त्व मात्र पुद्गल पिण्ड होने से निर्जीव है, इसे हम निम्न उदाहरण से स्पष्ट कर सकते हैं - किसी प्राणी के शरीर में जो हड्डी है वह हड्डी जब तक उस जीवित शरीर का अंग बनी हुई है, सजीव है। यद्यपि वही कैल्शियम या चूने का ही एक रूप है किन्तु वह हड्डी के रूप में परिणत चूना सजीव है। इसी प्रकार किसी प्राणी के शरीर में जो लोह तत्त्व है वह सजीव है किन्तु मृत शरीर में रहा हुआ लोह चूना या तत्त्व निर्जीव है। इसका एक प्रमाण यह है कि यदि किसी जीवित शरीर की हड्डी टूट जाती है और यदि उसे सटा दिया जाये तो वह कालान्तर में पुनः जुड़ 58 -
- तुलसी प्रज्ञा अंक 140
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