Book Title: Tulsi Prajna 2008 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 86
________________ उल्लेख है। क्या आज भी इन विद्याओं को साधा जा सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर हमें अपने भीतर से खोजना होगा। सामाजिक प्रोत्साहन और विकास : दोनों सहयायी समाज परस्परोपग्रह के आधार पर चलता है। जहां सामाजिक प्रोत्साहन व सामाजिक सहकार का वातावरण होता है, वहां विकास की यात्रा कभी रुकती नहीं। जहां सामाजिक प्रोत्साहन नहीं मिलता वहां विकास की गति भी मंद हो जाती है। ज्ञातधर्मकथा में वासुदेव कृष्ण का प्रसंग आता है। वे विपुल राज्य सम्पदा के स्वामी थे । वेताढ्य गिरि से लेकर सागर पर्यन्त दक्षिणार्ध भरत क्षेत्र तक उनका एकछत्र साम्राज्य था।" उनकी उदारता भी विशिष्ट थी । थावच्चा गृहस्वामिनी ने कृष्ण वासुदेव से कहा- देवानुप्रिय ! मेरा एकमात्र पुत्र संसार से विरक्त हो प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता है। मैं चाहती हूँ कि उसे छत्र, मुकुट और चंवर तुम प्रदान करो। उस समय कृष्ण ने कहा "अच्छाहि णं तुमं देवाणुप्पिए! सुनिव्वुत्त-वीसत्था अहण्णं सयमेव थावच्चापुत्तस्स दारगस्स निक्खमणसक्कारं करिस्सामि " - देवानुप्रिये ! तुम शांत और विश्वस्त रहो । बालक थावच्चापुत्र का सारा अभिनिष्क्रमण सत्कार स्वयं मैं ही करूँगा । 49 इतना ही नहीं, उन्होंने पूरे नगर में घोषणा करवायी कि “जो भी थावच्चापुत्र के साथ प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता है वह सहर्ष दीक्षा ग्रहण करे। उनके परिजनों के योगक्षेम व आजीविका के परिवहन का दायित्व मैं स्वयं लेता हूँ। वासुदेव का प्रोत्साहन प्राप्त कर एक हजार व्यक्तियों ने थावच्चापुत्र के साथ संयम ग्रहण किया। नन्द मणिहार ने एक सुन्दर पुष्करिणी का निर्माण करवाया। वहां अनेक लोग अपनी प्यास बुझाते। कोई स्नान करता तो कोई वहां के मनोहारी वातावरण में बैठकर अपनी थकान को दूर करता। इतना ही नहीं, उसने उस पुष्करिणी के पारिपार्श्व में महानसशाला ( पाकशाला ), चिकित्साशाला, चित्रकार सभा और आलंकारिक सभा का भी निर्माण करवाया। 50 ये सारे समाजोपयोगी कार्य उसकी सामुदायिक चेतना के प्रतीक थे। उस समय भारतीय समाज में सहयोग एवं सेवा के संस्कार कितने जीवन्त थे, इसका अनुमान उपर्युक्त वर्णन को पढ़कर लगाया जा सकता है। - धनसंपन्नता और दरिद्रता समाज के विकास का बड़ा आधार बनता है - अर्थ। पुरुषार्थ चतुष्टयी में अर्थ का अपना विशेष महत्व है। प्राचीन काल में अर्थ का प्रभाव और अभाव दोनों थे। एक वर्ग आर्थिक संपन्नता के शिखर पर था तो एक वर्ग ऐसा भी था जो दरिद्रता का जीवन जीने को विवश था। प्रस्तुत ग्रंथ में जहां धनाढ्य श्रेष्ठिवर्ग का चित्रण है तो दरिद्र जीवन के प्रतीक के रूप में तुलसी प्रज्ञा अंक 140 80 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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