Book Title: Tulsi Prajna 2008 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 98
________________ एक स्थान पर सटीक और क्रमिक विवेचन हुआ है, जो शुद्ध आहारचर्या का संकेत देंने वाले हैं। संपादिका ने पर्यवेक्षण के अन्तर्गत पिण्डनियुक्ति में उल्लिखित एवं अवगुम्फित सामाजिक परम्पराओं एवं मान्यताओं को सहजता से उकेरा है, जिससे सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से ग्रन्थ का महत्त्व बढ़ा है। पिण्डनियुक्ति की विषय-सूची भी संक्षेप में ग्रन्थ के विषयों का ज्ञान कराने वाली है। ग्रन्थ में परिशिष्ट जोड़कर संपादिका ने ग्रन्थ को अनेक दृष्टि से उपयोगी बना दिया है। दार्शनिक विद्वान् लोग जहां तुलनात्मक संदर्भ से प्रभावित होंगे, वहीं भेषज विद्वान् आयुर्वेद एवं आरोग्य की मुक्तकंठ से प्रशंसा करेंगे। विद्वान् परिशिष्ट के अन्य खण्ड एकार्थक, निरुक्त, उपमा और दृष्टान्त, परिभाषाएं, निक्षिप्त शब्द, सूक्त-सुभाषित के पारायण से शास्त्रीय सुख की अनुभूति करेंगे। संपादिका ने अपनी सूझबूझपरक दृष्टि से 'कथाएं' खण्ड के माध्यम से आम पाठकों को भी प्रस्तुत ग्रन्थ को पढ़ने के लिए प्रेरित किया है। श्रद्धा और ज्ञान निष्ठा के साथ आगम के ज्ञान की विशदता भी झांकती है। यह श्रम शोध करने वाले छात्रों के लिए भी अत्यन्त उपयोगी होगा। संपादिका डॉ. समणी कुसुमप्रज्ञा के संपादन कौशल ने ज्ञान का अवगाहन कर तथ्यात्मक ज्ञान सम्पदा को पाठकों के लिए समर्पित करना ज्ञान परम्परा में अभिनव पहचान बना है। उन्होंने अनेक ग्रन्थों का कुशल संपादन करके उन्हें पाठकों के लिए भोग्य बनाया है। जैन विश्व भारती ने इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ को जिस त्वरित गति से जनसम्मुख प्रस्तुत किया है, ग्रन्थ की उत्कृष्ट छपाई, अच्छे कागज एवं प्रूफ की गुणवत्ता ने ग्रन्थ की गरिमा को बढ़ाया है। आवरण पृष्ठ ग्रन्थ के मूल हार्द को अभिव्यक्त करता है। यह ग्रन्थ पठनीय, मननीय एवं संग्रहणीय है। सम्पादक : समणी कुसुम प्रज्ञा प्रकाशक : जैन विश्व भारती, लाडनूं समीक्षक : आनन्दप्रकाश त्रिपाठी 92 - तुलसी प्रज्ञा अंक 140 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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