Book Title: Tulsi Prajna 2008 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 94
________________ को ग्रहण करता है। पांच अणुव्रतों के पालन करने में जो उपकारक हों, जो उन्हें पुष्ट करते हों, वे गुणव्रत कहे जाते हैं। गुणव्रत तीन हैं - 1. दिग्व्रत, 2. अनर्थदण्डव्रत और 3. उपभोग- परिभोगपरिमाणव्रता 1. दिग्वत - विभिन्न दिशाओं में जाने के सम्बन्ध में मर्यादा या सीमाकरण। 2. अनर्थदण्डविरमण - आत्मा के लिए अहितकर या आत्मगुणघातक निरर्थक प्रवृत्ति का त्याग। 3. उपभोग - परिभाग-परिमाण- जिन्हें अनेक बार भोगा जा सके, ऐसी वस्तुएं - जैसे वस्त्र आदि तथा परिभोग जिन्हें एक ही बार भोगा जा सके - जैसे भोजन आदि। इनका परिमाण अर्थात् सीमाकरण ___चार शिक्षाव्रत - शिक्षाव्रत को बार-बार अभ्यास हेतु काल विशेष के लिए किया जाता है। शिक्षाव्रत चार हैं - 1. सामायिक व्रत, 2. देशावकाशिक व्रत, 3. पौषधोपवास व्रत और 4. अतिथिसंविभाग व्रत। ___1. सामायिक व्रत - काल का अभिग्रह लेकर अर्थात् अमुक समय तक अधर्म प्रवृत्ति का त्याग करके धर्म प्रवृत्ति में स्थिर होने का अभ्यास करना सामायिक व्रत है।" उपासकदशांगसूत्र के अनुसार समता या समत्वभाव की साधना के लिए एक नियत समय (न्यूनतम एक मुहर्त - 48 मिनट) में किया जाने वाला अभ्यास।42 2. देशावकासिक व्रत - नित्य प्रति अपनी प्रवृत्तियों में निवृत्ति-भाव की वृद्धि का अभ्यास। 3. पौषधोपवास- अध्यात्म-साधना में अग्रसर होने के हेतु यथाविधि आहार अब्रह्मचर्य आदि का त्याग। अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा या किसी दूसरी तिथि में उपवास करके और सब प्रकार की शरीर-विभूषा का त्याग करके धर्म-जागरण में तत्पर रहना पौषधोपवास है।44 अतिथि संविभाग व्रत - जिसके आने की कोई तिथि नहीं, ऐसे अनिमंत्रित संयमी साधक या साधर्मिक बन्धुओं को संयमोपयोगी एवं जीवनोपयोगी अपनी अधिकृत सामग्री का एक भाग आदरपूर्वक देना, सदा मन में ऐसी भावना रखना कि ऐसा अवसर प्राप्त हो। सर्वार्थसिद्धि में उल्लेख मिलता है कि जिसके आने की कोई तिथि नहीं, उसे अतिथि कहते हैं। इस अतिथि के लिए विभाग करना अतिथिसंविभाग व्रत कहलाता है। तत्वार्थसूत्र के अनुसार न्याय से उपार्जित खान-पान आदि के योग्य वस्तुओं का शुद्ध भक्तिभावपूर्वक सुपात्र को इस प्रकार दान देना कि उससे उभय पक्ष का हित हो - वह अतिथिसंविभाग व्रत है।47 इस प्रकार द्वादश अणुव्रतों का पालन करने वाले श्रावक और श्राविका श्रमणोपासक होते हैं। - तुलसी प्रज्ञा अंक 140 88 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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