Book Title: Tulsi Prajna 2008 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 92
________________ कूटतुला - कूटमान - झूठे तौल और झूठे नाम का उपयोग करना या नाम तोल न्यूनाधिक करना। तत्प्रतिरूपक व्यवहार - शुद्ध वस्तु में उसके सदृश या असदृश वस्तु मिलाकर बेचना, मिलावट करना। जैसे - दूध में पानी, शुद्ध घी में वनस्पति घी मिलाना। 22 4. ब्रह्मचर्य या स्वदार सन्तोषव्रत (स्थूल मैथुन विरमणव्रत) यह श्रावक का चतुर्थ अणुव्रत है। इसका शास्त्रीय नाम स्वदार संतोष अथवा परदार विरमणव्रत है। श्रावक अपने आचरण करने योग्य नियमों को ध्यान में रखता हआ यह व्रत भी ग्रहण करता है कि मैं अपनी विवाहित पत्नी के अतिरिक्त अन्य किसी स्त्री के साथ किसी तरह का मैथुन सम्बन्ध नहीं रखूगा। स्वदार संतोष व्रत ग्रहण करने से श्रावक कामवासना से पूर्ण निवृत्त तो नहीं हो जाता है, किन्तु संयमित अवश्य हो जाता है। श्रावक और श्राविका दोनों ही इस व्रत को ग्रहण करके अपने धर्म का निर्वाह करते हैं। इसी कारण यह व्रत ब्रह्मचर्याणुव्रत नाम से अधिक प्रचलित है। पर स्त्री के साथ मैथुन सम्बन्ध नहीं रखना ब्रह्मचर्याणुव्रत बतलाया गया है। किन्तु आचार्य सोमदेव ने उपासकाध्ययन में विवाहित स्त्री और वेश्या के अलावा अन्य स्त्रियों को माता, बहिन या पुत्री मानने को ही ब्रह्मचर्याणुव्रत स्वीकार किया है। उपासकदशांग सूत्र में अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों से मैथुन सेवन करना अब्रह्म कुशील का स्वरूप बतलाया गया है। आनन्द श्रावक ने श्रमण भगवान् महावीर से स्वदार संतोषव्रत का नियम लिया था। मैं शिवानन्दा (पत्नी) के अतिरिक्त अन्यत्र मैथुन सेवन का प्रत्याख्यान करता हूँ।25 ब्रह्मचर्याणुव्रत के अतिचार - स्वदार परिमाणव्रत के निम्न पांच अतिचार बतलाए हैं - 1. इत्वरिक, 2. अपरिगृहीतागमन, 3. अनंगक्रीड़ा, 4. परविवाहकरण तथा 5. कामभोगतीव्राभिलाषा। किसी दूसरे के द्वारा स्वीकृत अमुक समय तक वेश्या या वैसी साधारण स्त्री का उसी कालावधि में भोग करना इत्वरिक अतिचार कहलाता है। वेश्या का, जिसका पति विदेश चला गया है उस वियोगिनी स्त्री का अथवा किसी अनाथ या किसी पुरुष के कब्जे में न रहने वाली स्त्री का उपभोग करना अपरिगृहीतागम अतिचार कहलाता है। अस्वाभाविक अर्थात् सृष्टि विरुद्ध काम का सेवन। निजी संतति के उपरान्त कन्यादान के फल की इच्छा से स्नेह सम्बन्ध से दूसरे की संतति का विवाह करना परविवाहकरण अतिचार है। बार-बार उद्दीपन करके विविध प्रकार से काम क्रीड़ा करना कामभोगतीव्राभिलाषा अतिचार है। 86 - तुलसी प्रज्ञा अंक 140 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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