Book Title: Tulsi Prajna 2008 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 91
________________ सहसाभ्याख्यान- बिना सोचे विचारे किसी पर मिथ्या दोषारोपण करना। रहस्याभ्याख्यान - किसी का गुप्त रहस्य अन्य के समक्ष कह देना । स्वदारमन्त्रभेद - अपनी स्त्री की गुप्त बातें प्रकट करना। मृषापदेश- किसी को गलत सलाह, अनाचारादि की शिक्षा या झूठ बोलने का उपदेश देना। कूट लेख • झूठा लेख लिखना, झूठा दस्तावेज या झूठी बहियां बनाना।' 3. अचौर्याणुव्रत या स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत स्थूल अदत्तादान से विरत होना श्रावक का तृतीय अणुव्रत है। श्रावक का यह व्रत अस्तेय या अचौर्य व्रत के नाम से भी जाना जाता है। 'अदत्त' का अर्थ है- बिना दी हुई वस्तु, 'आदान' का अर्थ है - ग्रहण करना । इस प्रकार बिना दी हुई वस्तु को ग्रहण करना अदत्तादान है। बौद्ध निकाय ग्रन्थों में इसके लिए अदिन्नादान पद मिलता है। जैन श्रमण के लिए बिना अनुमति के कुछ भी ग्रहण करना स्वीकार्य नहीं है, तृण-ग्रहण करना भी वर्ज्य है, जबकि श्रावक द्वारा बिना दी हुई वस्तु को स्थूल रूप से ग्रहण नहीं करने से अदत्तादानविरमण व्रत कहा गया है । " आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में अस्तेय अणुव्रत के लिए 'अदत्तादान अस्तेय' शब्द प्रयुक्त करते हुए स्पष्ट कहा है कि स्तेयबुद्धि से अर्थात् चोरी करने के अभिप्राय से वस्तु को ग्रहण करना अदत्तादान है। " जो दूसरों की रखी हुई, गिरी हुई, भूली हुई वस्तु को और बिना दिए धन न तो स्वयं लेता है, न उठाकर दूसरों को देता है, उसे अचौर्याणुव्रतधारी कहते हैं। " 16 अमितगतिश्रावकाचार के अनुसार- खेत में, ग्राम में, वन में, गली में, मार्ग में, घर में, खलिहान में अवि ग्वाल टोली में रखें पड़े या नष्ट भ्रष्ट हुए पराये द्रव्य को ग्रहण न करना अचौर्यव्रत कहलाता है | 20 उपासकदशांगसूत्र में कहा है कि अदत्तादान विरमण व्रतधारी श्रावक आनन्द ने भगवान से जीवनपर्यन्त दो करण, तीन योग से अदत्तादान सेवन न करने की प्रतिज्ञा ली थी | 24 21 अचौर्याणुव्रत के अतिचार - अस्तेय व्रत का सम्यक् प्रकार से परिपालन करते हुए कभी प्रमाद या असावधानी से जो दोष लग जाते हैं, वे पांच प्रकार के अतिचार हैं - स्तेनाहत - चोर द्वारा लाया हुआ या चोर का माल रखना, ले लेना। तस्कर प्रयोग - चोरों को चोरी के लिए प्रोत्साहन देना, विरुद्धराज्यातिक्रम - राज्य के जिन नियमों का उल्लंघन करने से दण्डनीय बनना पड़े, ऐसा आचरण करना, जैसे चुंगी कर आदि की चोरी। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-सितम्बर, 2008 Jain Education International For Private & Personal Use Only 85 www.jainelibrary.org

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