Book Title: Tulsi Prajna 2008 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 84
________________ ग्राम, नगर, खेट, कर्बट, द्रौणमुख, मडम्ब, पत्तन, आश्रम, निगम, संबाध और सन्निवेशइन सारे शब्दों का प्रयोग प्राचीन नगर-निर्माण के वैविध्य को सूचित करता है। किसी भी नगर का सौन्दर्य-उसके मार्ग के आधार पर आंका जाता है। प्रस्तुत आगम में मार्ग के लिए त्रिक, चतुष्क, चत्वर, पथ, महापथ आदि शब्दों का निर्देश है। अट्टणशाला, मज्जनशाला, नापितकर्मशाला आदि का उल्लेख भी तात्कालीन स्थापत्यकला के वैशिष्ट्य को उजागर करता है। शिल्प के अन्तर्गत हस्तकौशल का समावेश होता है। चित्रकार, स्वर्णकार, नापित, काश्यप, वास्तुकार, मालाकार आदि का शिल्पकार के रूप में उल्लेख आता है। प्राचीन काल में चित्रकला और मूर्तिकला का अच्छा विकास था, जिसके स्रोत जैन साहित्य में मिलते हैं। कुमार मेघ का भवन ईहामृग, अश्व, बैल, मनुष्य, मगरमच्छ, पक्षी, सर्प, अष्टापद, हाथी, अशोक आदि सहस्त्रों चित्रों से चित्रित था। राजकुमारी मल्लि का चित्र इतना जीवन्त था कि राजकुमार मल्लिदत्त भ्रान्त हो गया और उसने उस चित्र को साक्षात् मल्लि ही मान लिया। इसी प्रकार मल्लि की स्वर्णमयी प्रतिमा उस युग की मूर्तिकला का उत्कृष्ट निदर्शन है।' नागगृह, भूतगृह, यक्षगृह के संदर्भ में नागप्रतिमा, वैश्रमण प्रतिमा का भी उल्लेख हुआ है।12 समुद्री यात्रा : एक जोखिम भरा कार्य किसी भी देश व समाज की आर्थिक व्यवस्था वहां के वाणिज्य पर निर्भर करती है। आर्थिक संपन्नता और सामाजिक उत्कर्ष दोनों साथ-साथ चलते हैं। प्राचीन समय में अर्थोपार्जन के दो बड़े स्रोत थे-खेती और पशुपालन। इसके अलावा व्यापार हेतु लोग समुद्री मार्ग से एक देश से दूसरे देश जाते थे। ऋग्वेद में समुद्री रत्न, मोती के व्यापार व समुद्री व्यापार से होने वाले लाभ का वर्णन है। संहिताओं में भी समुद्री यात्रा का उल्लेख है। जैन साहित्य में तथा प्रस्तुत ग्रंथ में भी समुद्री यात्रा का रोचक वर्णन मिलता है। ___ माकंदी पुत्रों-जिनरक्षित और जिनपालित ने बारह बार समुद्री यात्रा की। बाहरवीं बार उनको किस प्रकार उपद्रवों से अभिभूत होना पड़ा - प्रस्तुत ग्रंथ के 'मायंदी' अध्ययन में इसका रोचक वर्णन है। __प्राचीनकाल में लम्बी यात्राओं के लिए प्रस्थान से पूर्व पूरी तैयारी करनी पड़ती थी। निर्जन मार्ग में वन्य जीवों व लुटेरों का भय रहता था। इसलिए लोग समूह रूप में जाते, जिसे सार्थ कहा जाता। सार्थ का प्रमुख ‘सार्थवाह' कहलाता था। सार्थ के हर सदस्य की सुरक्षा का तथा उनकी सारी अपेक्षाओं की पूर्ति का दायित्व सार्थवाह पर होता था। उस युग में जब कोई श्रेष्ठी दूर देश की यात्रा पर जाता तो प्रस्थान से पूर्व नगर में घोषणा की जाती। उसे सुनकर बहुत सारे साधु-संन्यासी व परिव्राजक तथा अन्य गृहस्थ लोग भी साथ में यात्रा 78 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 140 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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