Book Title: Tulsi Prajna 2008 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 68
________________ वनस्पतिकायिक जीव हो । द्वीन्द्रिय आदि जीवों में पीड़ा की अभिव्यक्ति जितनी स्पष्ट देखी जा सकती है, उतनी इनमें नहीं। फिर भी जहाँ जीवन है, चेतना है वहाँ सुख-दुःख की अनुभूति तो होती ही है। आचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन के तृतीय उद्देशक में जो जल को जीव कहा गया, मेरी दृष्टि में उसका हेतु यह हो सकता है कि जल जीवन्त तत्त्वों को स्वयं आकर्षित कर शीघ्र ही जीवन्त हो जाता है, जबकि पृथ्वी आदि जीवन्त प्राणियों के शरीर के रूप में ग्रहीत होने पर ही जीवन्त होते हैं। सत्य तो केवलीगम्य है। विद्वानों से अनुरोध है कि इस सन्दर्भ में विमर्शपूर्वक प्रकाश डालें। 62 Jain Education International For Private & Personal Use Only 35, ओसवाल सेरी शाजापुर (मध्यप्रदेश) तुलसी प्रज्ञा अंक 140 www.jainelibrary.org

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