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किया गया है। वैज्ञानिक दृष्टि से कहें तो जब ये चारों किसी सजीव प्राणी, चाहे सूक्ष्म वेक्टेरिया या जीवाणु रूप एकेन्द्रिय हो या उससे अधिक इन्द्रियों वाला हो, ये पृथ्वी आदि तत्त्व उसके शरीर के अंग के रूप में होते हैं, तब ये सजीव कहे जाते हैं और जब वे उस शरीर का अंग नहीं रहते तो निर्जीव कहलाते हैं जैसे प्रवाल। जब तक प्रवाल उगलने वाले कीट के शरीर के लार के रूप में है, तब तक वह सजीव हैं और तदनन्तर निर्जीव हैं। इसी प्रकार मोती बनाने वाला द्रव जब तक सीप में रहे हए कीड़े के शरीर के प्रवाही तत्त्व के रूप में है तब तक वह सजीव है और उसके द्वारा उगल देने के कुछ समय पश्चात् वह निर्जीव हो जाता है। अतः जैनों के द्वारा मान्य पृथ्वी, जल, अग्नि
और वायु की सजीवता वैज्ञानिक आधार पर भी सिद्ध की जा सकती है अर्थात् यह बात वैज्ञानिक दृष्टि से भी युक्तिसंगत है। शंख, युक्तिका (सीप) आदि जब तक किसी प्राणी के शरीर के रूप में है, जीवित है और उस प्राणी के द्वारा व्यक्त होने पर निर्जीव है। अतः पृथ्वी आदि किसी भी प्राणी के शरीर के रूप में ही जीवित है।
वर्तमान में वैज्ञानिक पृथ्वीतत्त्व के रूप में पर्वत या पाषाण आदि को, जलतत्त्व के रूप में जीवाणु से रहित शुद्ध जल को, अग्नि को एवं वायु को सजीव नहीं मानते हैं जबकि जैन दर्शन इन रूपों में भी उन्हें सजीव मानता है। इस संदर्भ में आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध से प्रथम सत्थपरिण्णा नामक अध्याय के पाठों को लेकर श्रीचैतन्यजी कोचर ने मेरे समक्ष कुछ जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की थी। आगे हम उन्हीं के समाधान का प्रयत्न करेंगे।
(1) आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्याय के तृतीय उद्देशक में उदयनिस्सयाजीवा और अनगाराणं उदयजीववियाहिया' इन पाठों को प्रस्तुत करते हुए यह जिज्ञासा प्रस्तुत की है कि जिस तरह से तृतीय उद्देशक में उदकाश्रित जीव और उदक जीव ऐसे दो अलग-अलग सूत्र दिये हैं, वैसे सूत्र पृथ्वीकाय आदि के सन्दर्भ में क्यों नहीं है? द्वितीय उद्देशक में केवल 'पुढवीसत्थंसमारम्भमाने अण्णेवडनेगरुवेपामेविहिंसई' इतना ही पाठ मिलता है। यद्यपि ऐसा ही पाठ अप्काय के सन्दर्भ में भी दिया गया है किन्तु अप्काय के सन्दर्भ में आचारांग में जो स्पष्टीकरण करके 'उदयनिस्सयाजीवा' और 'उदयजीवावियाहिया' ऐसे दो पाठ अतिरिक्त पाठ दिये हैं जो जल की सजीवता बताते हैं जबकि पृथ्वीकाय के सन्दर्भ में ऐसे पाठ क्यों नहीं है जिससे उसका जीवत्व सिद्ध हो। इसका तात्पर्य यह तो नहीं है कि पृथ्वीतत्त्व सजीव नहीं है? दूसरे जिस प्रकार उदक के आश्रित जीव है वैसे ही पृथ्वी के आश्रित जीव है, यह क्यों नहीं कहा गया जबकि पृथ्वी पर भी तो अनेक प्रकार के जीवजन्तु रहे हुए हैं? किन्तु यहां एक महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि पृथ्वी आश्रित जीव पृथ्वी के ऊपर होते हैं। अतः ये उससे अलग माने जा सकते हैं जबकि जलाश्रित जीव जल के अन्दर रहते हैं, अतः वे ही आश्रित माने गये हैं। वे जल के बाहर जीवित भी नहीं रहते हैं, जैसे-मछली।
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तुलसी प्रज्ञा अंक 140
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