Book Title: Tulsi Prajna 2008 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 67
________________ उनकी यह भी जिज्ञासा है कि जिस प्रकार 'उदकनिस्सयाजीवा' कहा गया, उसी प्रकार अग्गिनिस्सयाजीवा नहीं कहा गया है। इससे भी दो प्रकार की शंका उपस्थित होती है। क्या अग्नि स्वयं जीव रूप नहीं है अथवा क्या अग्नि के आश्रित जीव नहीं हैं? जबकि अग्निकाय के सन्दर्भ में काष्ठ, गोबर, कचरे आदि मिश्रित जीव कहे गये हैं। जहाँ तक वायुकाय का प्रश्न है, आचारांग की एक विशेषता यह देखने को मिलती है कि वह वनस्पतिकाय और तदुपरान्त त्रसकाय की विवेचना के पश्चात् ही वायुकाय की विवेचना करता है। सम्भवतः इसका कारण यह हो सकता है कि आचारांग की दृष्टि में वायु को स (गतिशील) माना गया हो और इसी के कारण त्रस की विवेचना के पश्चात् वायु से सम्बन्धित उद्देशक हो। यह भी सत्य है कि वायुकाय के सन्दर्भ में भी 'वायुनिस्सयाजीवा' एवं ‘वायुजीवाविसाहिया' ऐसे पाठ नहीं हैं। इस आधार पर यह चिन्तन भी चला कि आगम में जहाँ वायु या वायुकाय, अग्नि और अग्निकाय, पृथ्वी और पृथ्वीकाय ऐसे शब्दों का प्रयोग है, वहाँ उनका अर्थ जीव रूप में ग्रहण नहीं करके केवल उन्हीं स्थानों पर उनके जीवत्व का ग्रहण करना जहाँ पृथ्वीकायिक जीव, अग्निकायिक जीव या वायुकायिक जीव ऐसे प्रयोग हों, वहीं उनके जीवत्व ग्रहण करना। इसी प्रकार जहाँ पृथ्वीशस्त्र या पृथ्वीकाय मात्र का उल्लेख है वहाँ भी उनके जीवत्व का प्रतिपादन है। ऐसा निश्चयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि शस्त्र सचित्त और अचित्त दोनों हो सकते हैं, इसी प्रकार का भी सचित्त और अचित्त दोनों हो सकते हैं। शस्त्र और काय जीव द्रव्य या जीव तत्त्व के द्वारा जब तक शरीर रूप में ग्रहीत है, वे तभी तक सजीव हैं अन्यथा नहीं ऐसी मेरी व्यक्तिगत समझ हैं। सारी पृथ्वी, समस्त जल, समस्त अग्नि, उष्मा या समस्त वायु जीवित ही है या सजीव ही है - ऐसा एकान्त नियम नहीं हैं। आज विज्ञान ने चाहे जितनी प्रगति कर ली हो, वह जड़ से जीवन का विकास नहीं कर सका है, जीवन्त तत्त्व से ही जीवन का विकास होता है। यद्यपि जीवन्त तत्त्वों में ऐसी शक्ति अवश्य रही है कि जड़ तत्त्वों को ग्रहण कर अपने सम्पर्क से उन्हें भी जीवन बना दे, जैसे किसी व्यक्ति या प्राणी द्वारा गृहीत कैल्शियम (चूना ) उसके शरीर रूप में परिणत होकर जीवन्त बन जाता है। आचारांग सूत्र में वनस्पति सजीव है, यह सिद्ध करने के लिए जैसी प्राणी शरीर से उसकी तुलना की जाती है, वैसी तुलना पृथ्वी, अपू, अग्नि और वायु के सन्दर्भ में नहीं है। इनके सन्दर्भ में केवल इतना ही कहा गया है, जीवन्त स्थिति में शस्त्र द्वारा इनकी हिंसा करने पर वैसी ही वेदना होती है जैसी एक पंगु एवं मूक व्यक्ति को होती है, ये जीव पीड़ा का अनुभव ही करते हैं, पीड़ा की अभिव्यक्ति नहीं कर पाते हैं। यह बात समस्त एकेन्द्रिय जीवों के सन्दर्भ में सत्य है। वे चाहे पृथ्वीकायिक जीव हो, अप्कायिक जीव हो, अग्निकायिक जीव हो, वायुकायिक जीव हो या तुलसी प्रज्ञा जुलाई-सितम्बर, 2008 Jain Education International - For Private & Personal Use Only 61 www.jainelibrary.org

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