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जैन ग्रंथ भंडारों में संग्रहीत गणितीय पांडुलिपियाँ
अनुपम जैन एवं सुरेखा मिश्रा
देव पूजा गुरूपास्ति, स्वाध्याय: संयमस्तपः । दानं चेति गृहस्थानां, षट्कर्माणि दिने दिने ।'
जैन-धर्म के अनुयायी जिन्हें श्रावक की संज्ञा दी जाती है, के दैनिक षट्कर्मों में आराध्य देव तीर्थंकरों की पूजा, निर्ग्रन्थ गुरुओं की उपासना, स्वाध्याय, तपश्चरण एवं दान सम्मिलित हैं। इन षट्कर्मों में स्वाध्याय सम्मिलित होने के कारण श्रावकों की प्राथमिक आवश्यकताओं में परम्पराचार्यों द्वारा प्रणीत शास्त्र सम्मिलित हैं। स्वाध्याय का अर्थ परम्पराचार्यों द्वारा प्रणीत ग्रंथों का नियमित अध्ययन है, फलतः जैन उपासना स्थलों (जिन मंदिरों) के साथ स्वाध्याय के लिये आवश्यक शास्त्रों का संकलन एक अनिवार्य आवश्यकता बन गई है। प्राचीन काल में मुद्रण की सुविधा उपलब्ध न होने के कारण श्रावक प्रतिलिपिकार विद्वानों की मदद से शास्त्रों की प्रतिलिपियां करा कर मंदिरों में विराजमान कराते थे। जैन ग्रन्थों में उपलब्ध कथानकों में ऐसे अनेक प्रसंग उपलब्ध हैं जिनमें व्रतादिक अनुष्ठानों की समाप्ति पर मंदिर में शास्त्र विराजमान कराने अथवा भेंट में देने का उल्लेख मिलता है। विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न पंडितों को उनके अध्ययन में सहयोग देने हेतु श्रेष्ठियों द्वारा सुदूरवर्ती स्थानों से शास्त्रों की प्रतिलिपियां मंगवाकर देने अथवा किसी शास्त्र विशेष की अनेक प्रतिलिपियां करवाकर तीर्थयात्राओं
मध्य विभिन्न स्थानों पर भेंट स्वरूप देने के भी उल्लेख विद्यमान है।
जैन परम्परा में प्रचलित इस पद्धति के कारण अनेक मंदिरों में साथ अत्यन्त समृद्ध शास्त्र भंडार भी विकसित हुए। ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी जिसे श्रुत पंचमी की संज्ञा प्रदान की जाती है, के दिन इन शास्त्रों के पूजन, साज-संभाल की परम्परा है। ' अतः शास्त्र के पन्नों को क्रमबद्ध करना, नये वेष्ठन लग़ाना, उन्हें धूप दिखाना आदि सदृश परम्पराएं शास्त्र भंडारों के संरक्षण में सहायक रही। यही कारण है कि मध्यकाल के धार्मिक विद्वेश के झंझावातों एवं जैन ग्रन्थों को समूल नष्ट किये जाने के कई लोमहर्षक प्रयासों
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-सितम्बर, 2008
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