Book Title: Tulsi Prajna 2008 07
Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 62
________________ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि भारतीय चिन्तन के पुराकाल से लेकर अब तक प्रायः सभी दर्शनों में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश ये पंचमहाभूतों को सांख्य आदि दर्शन में सामान्य तथा अजीव ही माना गया है। किन्तु वैदिक काल में पृथ्वी, अपू, अग्नि और वायु - इन चार को देव संज्ञा भी प्रदान की गई थी और इन्हें पृथ्वी देवता, अप् देवता, अग्नि देवता, वायु देवता के रूप में पूज्य भी माना गया है। यदि इनमें देवत्व का आरोपण किया जाता है तो यह सत्य है कि इन्हें सजीव भी मानना होगा, क्योंकि देव तो सजीव या सचेतन है । इस आधार पर कुछ विचारकों ने यहाँ तक कह दिया कि वैदिकों ने जिन्हें देवता के रूप में स्वीकार किया था उन्हें ही जैन दर्शन में जैनों ने जीव के रूप में स्वीकार कर लिया। जैन दर्शन में षट्जीव निकायों में पृथ्वी, अप्, अग्नि और वायु - ये चार भी सजीव माने गये। फिर भी यहाँ मूलभूत अन्तर यह है कि जहाँ वैदिक परम्परा में इनमें देवत्व का आरोपण करके एक उच्च भूमिका प्रदान की गई, वहीं जैन दर्शन में इन्हें एकेन्द्रिय जीव मानकर इनको जीवनी शक्ति के विकास की दृष्टि से प्राथमिक स्तर पर ही रखा गया। यदि जैनों को वैदिकों का अनुसरण ही करना था, तो उन्होंने इनमें देवत्व का आरोपण क्यों नहीं किया ? यह प्रश्न अनुत्तरित ही रहता है। दूसरे यह कि वैदिक परम्परा में इनमें देवत्व का आरोपण कर इन्हें एक ही माना गया था, किन्तु जैन दर्शन में पृथ्वीकायिक, अपकायिक और अग्निकायिक जीवों की संख्या तो असंख्य मानी गई और वनस्पतिकाय की अनन्त, अतः यह बात पूरी तरह सिद्ध नहीं हो पाती है कि पृथ्वी, अपू, वायु और अग्नि को जीव मानने में जैनों ने वैदिकों का ही प्रकारान्तर से अनुसरण मात्र किया गया है। वैदिक परम्परा में भी जहाँ भी उपनिषदकाल से पंचमहाभूतों की चर्चा आई है वहाँ पंचमहाभूतों को जड़ या भौतिक ही माना गया है। साथ ही जिन-जिन तथाकथित आस्तिक दर्शनों में इन पंचमहाभूतों की चर्चा हुई है उन सभी ने इन्हें जड़ या अजीव तत्त्व ही माना है। इसके विपरीत भारतीय चिन्तन में जैन-धर्म-दर्शन ही एक ऐसा दर्शन है जो पंचमहाभूतों में से आकाश को मात्र जड़ मानता है और शेष पृथ्वी, अपू, वायु और अग्नि । इन चार को सजीव मानता है । आधुनिक वैज्ञानिकों में भी इन्हें जड़ तत्त्व के रूप में स्वीकार किया है। यद्यपि आधुनिक विज्ञान जब विज्ञान के विकास की बात करता है तो वह जल को ही जीवन के विकास का आधारभूत तत्त्व मानता है। फिर भी आधुनिक विज्ञान की दृष्टि में पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि अपने आप में तो जड़ ही है। भारतीय दर्शनों और वैज्ञानिकों दोनों की दृष्टि से पंचमहाभूतों में आकाश को जड़ माना गया है। जैन ने भी उसे जड़ ही कहा है। इस सन्दर्भ में जैन दर्शन अन्य भारतीय दर्शनों और विज्ञान में विशेष मतभेद की बात नहीं है, किन्तु जहाँ तक पृथ्वी, अप् (जल), अग्नि और वायु का प्रश्न है वह तो सजीव ही मानता है। यह भी सत्य है कि वनस्पति में जीवन है, इस बात को लेकर जैन दर्शन का अन्य भारतीय दर्शनों और विज्ञान से कोई मतभेद नहीं है। सभी वनस्पति को सजीव ही मानते हैं। जगदीशचन्द्र बासु ने तो अनेक प्रयोगों के माध्यम से वनस्पति की जीवन्तता को सिद्ध कर दिया है, तुलसी प्रज्ञा अंक 140 56 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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