Book Title: Tulsi Prajna 2002 10 Author(s): Shanta Jain, Jagatram Bhattacharya Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 6
________________ 'महाप्रज्ञ दर्शन' में दृष्टि परिवर्तन की भावभूमि - प्रोफेसर दयानन्द भार्गव आचार्य महाप्रज्ञ एक व्यक्ति नहीं, एक संस्कृति है। उनकी सन्तता और जागृत प्रज्ञा आगम- अनुसंधान का दुरूह कार्य सम्पादन कर सत्य की तलाश में जो दर्शन, विचार, तथ्य और निष्कर्ष प्राप्त किए, आज वे दार्शनिक, साहित्यिक, बौद्धिक एवं चिन्तनप्रौढ़ विद्वद् समाज के बीच मील के पत्थर बने हैं। उनका साहित्य उनके जीए गए अनुभवों का निचोड़ है । वे पढ़े- पढ़ाए ज्ञान को लेखन और भाषा में नहीं उतारते बल्कि प्रज्ञा की आंख से परखते हैं - सत्य की कसौटी पर कसते हैं । सम्प्रदाय की सीमाओं में रहकर भी उनकी साम्प्रदायातीत स्वतंत्र चेतना साधुता की भूमिका पर सर्वदर्शी एवं सर्वकल्याणी है । इसीलिए उनके साहित्य का गहराई तक पहुंच कर प्रोफेसर दयानन्द भार्गव ने वर्षों तक अध्ययन-अनुसन्धान किया और अथाह ज्ञानसमन्दर में डुबकी लगाकर जो रत्न प्राप्त किए, उन रत्नों को उन्होंने महाप्रज्ञ दर्शन नामक एक ग्रन्थ में लिपिबद्ध कर विद्वानों को इस वर्ष का एक अनूठा उपहार प्रदान किया है। महाप्रज्ञ दर्शन शीर्षक ग्रन्थ में दृष्टि, भावभूमि, व्यवहार और परमार्थ - उपशीर्षकों में आचार, विचार, व्यवहार, दर्शन, शिक्षा आदि चिन्तनाओं को गहन अध्ययन, अन्वेषणअनुशीलन के बाद डॉ. भार्गव ने लिखकर इस ग्रन्थ को भारतीय वाङ्गमय की परम्परा में एक आदर्श कड़ी के रूप में खड़ा कर दिया है। इस ग्रन्थ की समीक्षा का दायित्व जिज्ञासु पाठकों को सौंपते हुए तुलसी प्रज्ञा के इस अंक में ग्रन्थ का एक महत्वपूर्ण अंश प्रस्तुत कर रहे हैं जो आचार्य महाप्रज्ञ के साहित्य को पढ़ने के बाद यह आलेख लेखक के गम्भीर अध्ययन, सूक्ष्म मेधा, सम्यक् ग्रहणशीलता और उदार चिन्तन का प्रतीक है। उन्होंने इस अध्याय का निर्माण कर प्राचीनता के साथ आधुनिकता का केवल समन्वय ही स्थापित नहीं किया बल्कि स्वतंत्र चिन्तन के साथ सत्य की तलाश में साहसी कदम उठाया है। प्रस्तुत है महाप्रज्ञ दर्शन ग्रन्थ का दृष्टि नामक अध्याय, जो हमारे प्रचलित धारणाओं में चिन्तन की प्रतिबद्धताओं को ढीला कर सच्चाई से रूबरू होने का स्वर्णिम अवसर देती है । सम्पादक तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only 3 www.jainelibrary.orgPage Navigation
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