Book Title: Tulsi Prajna 1992 04 Author(s): Parmeshwar Solanki Publisher: Jain Vishva Bharati View full book textPage 9
________________ जैन परम्परा के विकास में श्राविकाओं का योगदान डॉ० महावीर राज गेलड़ा जनरल सर ए० कनिङघम ने अपने पुरातत्त्व सर्वेक्षण प्रतिवेदन खण्ड-३, प्लेट XIII-XV में जैन मत और जैन शीर्षकों के खण्डित शिलालेखों के संदर्भ प्रकाशित किए हैं । डा० जार्ज भूलर ने इन प्रकाशित प्रतियों की त्रुटियों का सुधार करते हुए अपना मंतव्य प्रकट किया है कि इन शिलालेखों पर अंकित गण, कुल, शाख के वर्णन जैन आगम, कल्प सूत्र में वर्णित गण, कुल एवं शाख से मिलते हैं जो इस बात का सूचक है कि जैन परम्परा विकसित होती हुई इस युग में अनेक शाखाओं में विभक्त हो चुकी थी। यह समय कनिष्क का माना गया है क्योंकि ये शिलालेख अशोक के शिलालेखों से भिन्न हैं । इन शिलालेखों की भाषा संस्कृत और प्राकृत का मिश्रण है जो लगभग सभी हिन्दी स्काईथियन राजाओं के शिलालेखों से मिलता है-डा० होर्नेल ने इसे उत्तरी और उत्तरी पश्चिमी भारत की ईसा पूर्व और बाद की प्रथम शताब्दियों की साहित्यिक भाषा मानी है। इन शिलालेखों की विकृति का कारण शिलालेखी शिल्पकार नहीं हैं वरन् वे प्रतिकर्ता उत्तरदायी हैं जिन्होंने शिलालेखों से प्रस्तुतीकरण सही ढंग से नहीं किया है । समय के अन्तराल से शिलालेखों के अक्षरों में मात्रा के निशान मिट गये हैं, फलस्वरूप व्यंजन भ्रामक रूप से आपस में बदल गये हैं । उदाहरणार्थ- (व, च) (व, ध) (ल, न) (त, स) आपस में बदले लगते हैं और उसी से प्लेटें भी भ्रामक एवं विकृत बनी हैं । इनको शुद्ध कर पढ़ने के प्रयास से पता चलता है कि जैन गृहणिएं-श्राविकाएं उदारतापूर्वक दान देती रही हैं । शिलालेख xiii जो कि एक जनाकृति के नीचे पाया गया है, शुद्ध करने के बाद निम्न प्रकार अनूदित किया जा सकता है। "सिद्ध, नमन, सम्वत् २०, ग्रीष्म ऋतु का पहला महीना, १५ तारीख, भगवान् वर्द्धमान की प्रतिमा, भेंट श्राविका दीना (या दीत्ता) द्वारा, दस्तीला की पुत्री, विशाला की पनि, जयपाल, देवदास और नागदीना की मां, उपदेशक आर्य संघसिंह की आज्ञा की अनुपालना में, कोटिया गण, विनय कुल, वेभरी शाख, सिरिका उपशाखा।" इसी प्रकार अन्य शिलालेखों पर श्राविका विकाता भत्ति, रोहिन्दा आदि के नाम आए हैं । सभी शिलालेखों में लिखने की पद्धति एक समान रही है । दानदाता श्राविका का नाम, उसके पति तथा अन्य परिवारजनों के नाम हैं, अन्त में गण, कुल, शाखा, उपशाखा के नाम उल्लेखित हैं। शिलालेखों के खंडित हो जाने से अनेक अक्षर, शन्द विलुप्त हैं लेकिन जिनको पढ़ा जा सका है उनमें निम्न श्राविकाओं के नामों का खण्ड १८, अंक ! (अप्रल-जून, १२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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