Book Title: Tulsi Prajna 1992 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 11
________________ 'पंचपरमेष्ठिपद और अर्हन्त तथा अरिहन्त शब्द ' [] डॉ० परमेश्वर सोलङ्की पिछले दिनों में प्रकाशित अपने दो लेखों में साध्वी डा० सुरेखाश्री ने पंच परमेष्ठि पद विषयक परिचर्चा आरम्भ की है । आचारांग, आचारांग चूला, सूयगडांग, ठाणांग, समवायांग, प्रकीर्णकसमवाय, भगवती, नायाधम्मकहा, उवासगदसांग, अंतगडदसांग, निरावलिका, अनुयोगद्वार, कल्पसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, पण्हावागरण, दशाश्रुतस्कन्ध, व्यवहारसूत्र, औपपातिक, पन्नवणा, दशवैकालिक, आवश्यक सूत्र, मूलाचार, विशेषावश्यक भाष्य, ओघनिर्युक्ति इत्यादि दर्जनों आगमादि ग्रंथों में अर्हत् आदि पद-प्रयोग के शोध-संदर्भ डॉ० सुरेखाश्री ने एकत्र किए हैं। मूलाचार और आवश्यक सूत्र - सन्दर्भों से उन्होंने परमेष्ठिपद की नियुक्ति पर भी चर्चा की है ।" मूलाचार और आवश्यक सूत्र सन्दर्भों से साध्वीश्री लिखती हैं कि राग-द्वेष और कषायों को, पांच इन्द्रियों को, परीषह और उपसर्गों को जिन्होंने नाश किया है उन अर्हन्तों को नमस्कार । उनका दूसरा उद्धरण है— जो नमस्कार के योग्य हैं, लोक में . उत्तम देवों द्वारा पूजनीय हैं, आवरण और मोहनीय शत्रु का हनन करने वाले हैं, वे अर्हन्त हैं । उन्होंने अर्हन्नमस्कार का फल और उसका परिणाम भी बताया है और उसे सर्वमंगलों में प्रथम मंगल कहा है । इस सम्बन्ध में आचार्य वीरसेन कहते हैं कि ग्रन्थकार द्वारा इष्ट देव को श्लोकादि से जो नमस्कार किया जाता है वह निबद्ध मंगल है और देवता को किया गया आदि नमन अनिबद्ध मंगल है । यह निबद्ध और अनिबद्ध मंगल आने वाले विघ्नों को दूर करता है । केवल अनिबद्ध मंगल से क्योंकि शुक्ल ध्यान नहीं होता, वह विषय परिज्ञान से ही होता है । इसलिए निबद्ध और अनिबद्ध - दोनों प्रकार से मंगल करना चाहिए। वे लिखते हैं "मंगल गिमित हेउ परिमाणं णाम तहय कत्तारं । वागरिय छप्पि पच्छा क्वाण सत्य माइरियो । इदि गाथमाइरियपरं परागयं मणेगावहारिय पुष्वाइरिया योराणुं सरणं तिरयणहेउ त्ति पुप्फदंताइरियो मंगलादीणं छष्णं सकारणाणं परूवणट्ठ सुत्तमाह णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं ॥ इदि " कि मंगल, निमित्त, हेतु, परिणाम, नाम और कर्ता इन छह का कथन करने के पश्चात् आचार्य को शास्त्र का व्याख्यान करना चाहिए। आचार्य परम्परा से आए हुए इस न्याय को मन में धारण कर और पूर्वाचार्यों की परम्परा का पालन करना रत्नत्रय खण्ड १८, अंक १ ( अप्रैल-जून, १२ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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