Book Title: Tulsi Prajna 1992 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati
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२१. सम्यग्दृष्टिश्रावक विरतानन्तवियोजकदर्शन मोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोक्षपकक्षीण मोहजिना:
क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ॥४७॥
- तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ६
२२. कसायपाहुडसुत सं० पं० हीरालाल जैन - वीरशासन संघ, कलकत्ता १९५८ । देखें
सम्मत्तसविरी संजम उवसामणाचखवणा च । दंसण-चरितमोहे अद्धापरिमाणणिसो ॥१४॥ सम्मत्ते मिच्छत्ते य मिस्सगे चेव बोद्धव्वा ||२|| विरदीय अविरदीए विरदाविरदे तहा अणगारे ॥ ८३ ॥ दंसणमोहस्स उवसामगस्स परिणामोकेरिसो भवेः ॥ ६१ ॥ दंसण मोहवणा पट्टवगो कम्मभूमि जादो तु ॥ ११० ॥ सुहुमे च सम्पराए बादररागे च बोद्धव्वा ।।१२१ ॥ उवसामणा खण दु पडिवदि दो होइ सुहुम रागमि ॥ १२२ ॥ खीणेसु कसासु य सेसाण के व होंति विचारा ।। १३२ ।। संकामणयोवट्टण किट्ठी खवणाए खवणा य आणुपुथ्वी २३. विस्तृत विवरण हेतु देखें— जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग २, डॉ० सागरमल जैन, प्राकृत भारती, जयपुर, पृ० ४७१४७८ एवं पृ० ४८७-४८८ ।
खीण मोहंते ।
बोद्धव्वा मोहणीयस्स ॥२३३॥
चिदचिद् द्व' परे तत्त्वे, विवेकस्तद्विवेचनम्, उपादेयमुपादेयं, हेयं हेयं च सर्वतः । यं तु कर्तृ रामादि, तत्कार्यमविवेकिनः, उपादेयं परं ज्योतिरूपयोगक लक्षणम् ॥ - पद्मनंदि
खण्ड १८, अंक १ ( अप्रैल-जून, १२ )
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