Book Title: Tulsi Prajna 1992 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 47
________________ वस्तु अनंत धर्मात्मक है तथा उसे अनेकांत दृष्टि से जाना जा सकता है, किन्तु यहां प्रश्न है कि वस्तु को अनेकान्त दृष्टि से कैसे देखा या जाना जाए? इसका जवाब है अपेक्षा से । अपेक्षा सिद्धांत के अनुसार किसी भी समस्या का कोई निरपेक्ष जवाब नहीं हो सकता है और न ही किसी वस्तु को निरपेक्ष रूप से जाना जा सकता है । वस्तु को अन्य वस्तुओं या विषयों की अपेक्षा से ही समझा जा सकता है। किसी वस्तु या उसके धर्मों को स्वयं के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाब की अपेक्षा से तथा पर-द्रव्य के द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव की अपेक्षा से जाना जाता है तथा उसे इसी प्रकार जानना चाहिए। पुनः प्रश्न होता है कि वस्तु में रहने वाले प्रतिपक्षी धर्मों को कैसे समझा जाये ? इसका जबाब है कि अपेक्षा-सिद्धान्त के साथ अविनाभाव से प्रतिपक्षी धर्मों को जानें या समझें। ५ साधारणतः यह माना जाता है कि किसी वस्तु में दो विरोधी धर्म नहीं रह सकते हैं। किन्तु जैन दार्शनिकों का मानना है कि प्रत्येक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्म के साथ वस्तु में रहता है। नित्य अनित्य के साथ, एक अनेक के साथ, सत् असत् के साथ रहता है, इन में कोई विरोध नहीं है । सत् असत् का अविनाभावी है और नित्य अनित्य का अविनाभावी है । अतः जब वस्तु में सत् है तो अविनाभाव से असत् को भी जानें । इस प्रकार अपेक्षा सिद्धान्त तथा अविनाभाव से प्रतिपक्षी धर्मों को जानना चाहिए । यहां प्रश्न है कि अनेकांत दृष्टि से व्यक्ति वस्तु को एक ही समय में समग्र रूप से जानता है या भिन्न-भिन्न काल में खण्ड-खण्ड रूप में ? इसके जबाब में जैन दार्शनिकों का कहना है कि वस्तु को अनेकान्त दृष्टि से एक ही समय में समग्र रूप से भी जानते हैं और भिन्न-भिन्न समय में खण्ड-खण्ड में भी। केवली अनेकान्त दृष्टि से वस्तु को एक ही समय में समग्र रूप से जानता है और साधारण व्यक्ति भिन्न-भिन्न समय में खण्डखण्ड रूप से वस्तु को जानता है । वस्तु के खण्ड-खण्ड ज्ञान को 'नय' कहते हैं अर्थात् वस्तु को खण्ड-खण्ड रूप में नय के द्वारा जाना आता है, और जितनी दृष्टियों से वस्तु को जानते हैं उतने ही 'नय' होते हैं । किन्तु वस्तु को अनेकांत दृष्टि से और अपेक्षा सिद्धांत से जानने पर वस्तु का विविध प्रकार से ज्ञान होता है, जिसको भाषा में एक समय तथा एक ही शब्द द्वारा अभिव्यक्ति करना कठिन है, क्योंकि कोई ऐसा एक शब्द नहीं है जो वस्तु के विविध प्रकार के ज्ञान को एकही समय में अभिव्यक्त कर सके । तब प्रश्न होता है कि वस्तु के इन विविध एवं विरोधी पक्षों को किस प्रकार कहा जाए ? इसके जवाब में जैन दार्शनिकों का कहना है कि स्याद्वाद विधि द्वारा विविध एवं विरोधी पक्षों को कहना या प्रतिपादन करना चाहिए । स्याद्वाद के अनुसार वस्तु के विविध पक्षों या अनेक धर्मों में से एक समय में एक ही धर्म का कथन या प्रतिपादन किया जा सकता है और प्रत्येक धर्म का प्रतिपादन उसके प्रतिपक्षी धर्म को लेकर सात प्रकार से किया जा सकता है। इस विधि के अनुसार कथन के पहले स्यात् शब्द को लगाना चाहिए" जो इस बात का द्योतक है कि वस्तु में जिस धर्म के बारे में कहा जा रहा है वही धर्म नहीं, अन्य धर्म भी खण्ड १८, अंक १, (अप्रैल-जून, ६२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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