Book Title: Tulsi Prajna 1992 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 46
________________ घ धर्मं धर्म क धर्म ख धर्म ग धर्म घ धर्म धर्म क अवस्था ख अवस्था ग अवस्था घ अवस्था ड़ अवस्था नित्य धर्म प्रतिपक्षी धर्म अनित्य धर्मं Jain Education International ख वस्तु अधर्म आकाश क काल ख काल ग काल घ काल अधर्म For Private & Personal Use Only आकाश ध्यान देने की बात यह है कि जैन विचार प्रणाली की विश्लेषणात्मक तथा संश्लेषणात्मक प्रक्रिया सभी व्यक्तियों के लिए समान रूप से लागू नहीं होती है । इस प्रक्रिया को दो भिन्न व्यक्तियों के संदर्भ में समझना आवश्यक है । एक उस व्यक्ति के संदर्भ में जो इस विधि का जनक है दूसरा उस व्यक्ति के है । दोनों व्यक्तियों के संदर्भ में यह पद्धति एक दूसरे के है वह विश्लेषण से संश्लेषण की ओर वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। इसके विपरीत बिन्दु है जो संश्लेषणात्मक है, वह इस अंत में वस्तु अनंत धर्मात्मक है इसकी इस प्रकार समझा जा सकता है संदर्भ में जो उसका अनुयायी विपरीत चलती है । जो जनक चलता है तथा इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि अनुयायी के लिए जनक का निष्कर्ष आरम्भ संश्लेषण से विश्लेषण की ओर चलता है तथा सिद्धि ही उसके लिए निष्कर्ष है । इस बात को काल जनक की विचार प्रक्रिया — समस्या — विश्लेषण - संश्लेषण निष्कर्ष - सिद्धांत निर्माण । अनुयायी की विचार प्रक्रिया - समस्या — निष्कर्ष – विश्लेषण -- निष्कर्ष - सिद्धांत की सिद्धि निर्माण । जनक की विचार प्रक्रिया में सबसे पहले कोई समस्या होती है, फिर वह समस्या के समाधान के लिए वस्तुओं का विश्लेषण करता है, फिर संश्लेषण करता है और संश्लेषण से वह किसी निष्कर्ष पर पहुंचता है तथा अन्त में सिद्धांत का निर्माण करता है । इसके विपरीत अनुयायी की विचार प्रक्रिया में सबसे पहले समस्या होती है और समस्या से संबंधित अन्य व्यक्ति से प्राप्त निष्कर्ष भी । वह इस निष्कर्ष का विश्लेषण करता है और विश्लेषण के द्वारा निष्कर्ष की प्रामाणिकता की जाँच करता और यदि विश्लेषण से निष्कर्ष की सिद्धि हो जाती है तब वही सिद्धि उसके लिए निष्कर्ष है और अंत में वह भी सिद्धांत की स्थापना करता है । ३८ तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org

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