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विस दृशकण्टकयोः समकालं, प्राप्तजन्मनो निदर्शनेन भाग्य विविधितां सूचयसि त्वं,
कि न तथा मम पतिमपि बदरि ॥ इस प्रकार समग्र काव्य में कल्पनामयी कथा प्रसूत है। सहज शब्द विन्यास के साथ भाव-प्रवणता को लिए प्रस्तुत काव्य संस्कृत भारती को गरिमान्वित करने वाला है। इसकी संपूर्ति वि० सं० २००२ में श्रावण शुक्ला ५ के दिन श्री डूंगरगढ़ में हुई थी। इसका हिन्दी अनुवाद मुनिश्री दुलहराज द्वारा किया गया है।
'प्राकृत काश्मीरम्' पं० रघुनन्दन शर्मा द्वारा कश्मीर के प्रकृति चित्रण का शतक काव्यों जी परंपरा में एक परिपूर्ण खण्ड काव्य है । पंडितजी पर वाग्देवी का वरद हस्त जन्म से ही था जो आशु कवित्व के रूप में निरन्तर गुनगुनाता रहता था। एक बार वे कश्मीर गए। कश्मीर का सौंदर्य जगप्रसिद्ध हैं। प्रकृति ने जी भर कर वहां के अणु-अणु में बहुरंगी चित्रों का निर्माण किया है । वहां के गगन स्पर्शी गिरिशृंगों कलकल करती सरिताओं, विशाल झीलों, कोमल लताओं और सौरभ भरे सुमनों में कवि-हृदय को उद्बुद्ध एवं उत्प्रेरित करने की अद्भुत क्षमता है। यही कारण है कि भारतीय वाङ्मय में कश्मीर के सौंदर्य चित्रण की अनेक उत्तम कृतियां उपलब्ध हैं । प्रस्तुत काव्य के अध्ययन से दूरस्थ व्यक्ति परोक्षतः भी प्रत्यक्षदर्शी की तरह आनन्द प्राप्त कर सकता है। कवि ने प्राचीन और अर्वाचीन का समीचीन सामंजस्य स्थापित किया है । अमर नाथ के नीचे से बढ़ती हुई अमरावती नदी को नटिनी की उपमा देते हुए कवि ने लिखा
राजीव शुभ्रवसना कुहचित् तुषारै, यूरोपयोषिदुपमा क्वचिदर्ध नग्ना। नग्ना कुहाप्युभयतो वनमानुषीव,
नेत्यल्पतामुपगता तटिनी नटोतः ॥ काव्य में कल्पना माधुर्य भी भरा पड़ा है, इस संबंध में कुछ स्थल द्रष्टव्य हैं
पंकाकुला कमलिनी मलिनां द्विरेफो, नोपेक्षते बहुविपद्यपि लोलुपो यम् । तद् भेक्ष्यवृतिमधुना घृणितां विधाय, हा ! कण्टकं किरति वर्मनि सन्मुनीनाम् ।। एकाकिनी कमलिनी स्वपतौ वियुक्ते, नो भाषते न हसति प्रणिमीलिताक्षी । निदन्तु के न मनुजामपि तां नितान्तं,
या प्रोषिते निजजने रमते परेषु ॥ कवि ने अपनी रचना में विलष्ट शब्दों का प्रयोग न करके लोक प्रचलित सरल खंड १८, अंक १ (अप्रैल-जून, १२)
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