Book Title: Tulsi Prajna 1992 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 76
________________ न्याय-वैशेषिक आदि के मत में मन, वचन और काया द्वारा अच्छे-बुरे कार्य करने से ही आत्मा कर्ता होता है । जैनसम्मत जीव इन अर्थों में कर्ता है, किन्तु कर्मपुद्गल को नहीं बनाने के कारण द्रव्यकर्म का अकर्ता कहा जाता है ।२५ वस्तुतः जीव के मनवचनादि से कार्य करने पर ही कर्मपुद्गल उसकी ओर आते हैं, अत: व्यवहारनय से उसे द्रव्यकर्म का भी कर्ता कहा जा सकता है किंतु निश्चयनय से जीव भावकमं का ही कर्ता है, द्रव्यकर्म का नहीं। देह में आत्मा की उपस्थिति की अनुभूति प्राणों के होने पर होती है। सप्राण जीव का ही बंध होता है । सप्ताण जीव ही कर्ता और भोक्ता होता है। जैसे आत्मा की हत्या कभी नहीं होती है, क्योंकि वह नित्य और अमर है। राग-द्वेषवश एक जीव के द्वारा दूसरे जीव के प्राणों को ही हानि पहुंचाए जाने पर कर्मबंध होता है। कर्मपुद्गल मिलकर (सप्राण जीव के एक शरीर से दूसरे शरीर में जाने पर) औदारिक, वैक्रियिक, तेजस आदि शरीरों का निर्माण करते हैं। ये शरीर पोद्गलिक होने से अचेतन हैं। उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि जनसम्मत कर्मवाद का सिद्धांत भारतीय अध्यात्मवाद की दृष्टि से प्राचीन होते हुए भी पूर्णत: नवीन है । यद्यपि अन्य भारतीय अध्यात्मवादियों के समान जैन दार्शनिकों ने भी प्राणियों के रूप, गुण, ऐश्वर्य, भाग्य, सुखदुःखादि के अन्तर का कारण अपने-अपने कर्मों का फल स्वीकार किया है किंतु जैनसम्मत कर्म का स्वरूप, भेद, विस्तृत व्याख्या, आस्रव एवं बन्ध की प्रक्रिया, जैनविचारकों की सूक्ष्म एवं मौलिक दृष्टि का परिचायक है। अर्थात् "जैन-दर्शन में स्वीकृत कर्मपुद्गलों का विचार अपने आप में एक जटिल और विस्तृत विषय है एवं मेरे विचार से इस कर्मसिद्धान्त की तात्त्विक समानतायें अन्य भारतीय दर्शनों में नहीं मिलती है।" O0 संदर्भ : १. (क) लेशयति-श्लेषयतीवात्मनि जननयनानिति लेश्या, अतीवचक्षुरायेक्षिका स्निग्धदीप्तरूपा छाया । -उत्तराध्ययन बृहवृत्ति, पत्र ६५० (ख) द्रष्टव्य, जैन योग सिद्धांत और साधना, सम्पादक --- आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज, पृ० ३३५ । 2. The karma matter thus accumulated in the soul produces a kind of colouration called leśyā. such as white, black etc. which marks the character of the soul. The idea of the Sukla and krsna karmas of the yoga System was probably suggested by the Jaina View. __-Indian Philosophy, by Das Gupta, Vol. I, P. 73 ३. ऋत कर्मफलों की व्यवस्था में गड़बड़ी न होने देने वाला तत्त्व है। मैक्डॉनल के अनुसार (Vedic Mythology P. ]] में) इस शब्द का प्रयोग आदेश, तुलसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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