Book Title: Tulsi Prajna 1992 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 44
________________ से क्यों देखें ? क्योंकि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है और प्रत्येक धर्म अपने प्रतिपक्षी धर्म के साथ वस्तु में रहता है। इन अनन्त धर्मों को एकान्तिक दृष्टि से पूरी तरह से नहीं जाना जा सकता है । यदि वस्तु को ऐकान्तिक दृष्टि से जाने तो वस्तु के बारे में हम यही कह सकते हैं कि वह सत् है, नित्य है. एक है, किन्तु इस प्रकार से जाना गया वस्तु का स्वरूप यथार्थ स्वरूप नहीं है, क्योंकि इन धर्मों के प्रतिपक्षी अविनाभावी धर्मों को तो जाना ही नहीं गया है और इन प्रतिपक्षी अविनाभावी धर्मों को जानना ही वस्तु के यथार्थ स्वरूप को जानना है, जिसे अनेकान्त दृष्टि से ही जाना जा सकता है । किसी वस्तु या विषय को अनेकान्त दृष्टि से समझने की आवश्यकता को एक दृष्टांत से स्पष्ट किया जा सकता है । जैसे हम किसी भवन के बारे में जानना चाहते हैं तो उसको एक स्थान से पूरी तरह से नहीं जाना जा सकता है। यदि उसे स्थान विशेष से देखें तो किसी एक भाग का हो ज्ञान होगा। उसको मुख्य दरवाजे की दिशा से देखने पर उसकी तीन अन्य दिशाओं तथा उसके अन्दर के भागों का ज्ञान नहीं हो सकता। इसी प्रकार किसी अन्य दिशा से देखने पर शेष अन्य दिशाओं का ज्ञान नहीं हो सकता। अतः उसे भिन्न-भिन्न दिशाओं से तथा भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से जानने की आवश्यकता रहती है । दूसरे उस भवन को देश तथा काल की दृष्टि से तथा अन्य भवनों और अन्य वस्तुओं से उसकी तुलना करके ही पूरी तरह से जाना जा सकता है । इसी प्रकार किसी वस्तु या विषय को अनेकान्त दृष्टि से जानना चाहिए । अनेकान्त दृष्टि से बस्तुओं को जानते समय विश्लेषण तथा संश्लेषण होता रहता है । यद्यपि जैन दार्शनिकों ने कहीं संश्लेषण तथा विश्लेषण की चर्चा नहीं की है, फिर भी इस प्रक्रिया द्वारा उनकी दर्शन विधि को समझा जा सकता है। विश्लेषण तथा संश्लेषण प्रक्रिया के अनुसार सबसे पहले जगत् के विश्लेषणात्मक तथा संश्लेषणात्मक संश्लिष्ट विषयों को वैचारिक स्तर पर सरल घटकों में घटाना फिर सरल घटकों को सरलतम घटकों में घटाना और यह देखना कि इन घटकों की प्रकृति या स्वरूप क्या है ? इस विश्लेषण प्रक्रिया के पूरी होने के पश्चात् संश्लेषण की ओर चलना । संश्लेषण-प्रक्रिया में समान धर्म वाली सभी वस्तुओं या विषयों को वर्ग में रखना तथा भिन्न धर्मों वाली वस्तुओं को भिन्न-भिन्न वर्गों में । इस प्रकार जगत् की सभी वस्तुओं को समान धर्मों के आधार पर जितनी कोटियों में रखा जा सकता है, रखें और अन्त में सब कोटियों के समान धर्म के आधार पर एक कोटि या वर्ग में रख दें। इस प्रक्रिया को जगत् तथा उसके विषयों पर घटा कर देखा जा सकता है। विश्लेषित जगत् के संश्लिष्ट विषय अनेक हैं, जिन्हें हम जानना चाहते हैं । जानने की प्रक्रिया में सबसे पहले हम उन्हें, अंशों में घटाते हैं, क्योंकि वे सरल नहीं हैं और जानने के लिए संश्लिष्ट को सरल अंशों में घटाना आवश्यक है। उस विश्लेषण प्रक्रिया में वस्तुओं में अनेक धर्म प्राप्त होते हैं । इस अवस्था में इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। यह निष्कर्ष जैन दर्शन का एक तत्वमीमांसीय सिद्धान्त है जिसे अनेकान्त सिद्धान्त या अनेकान्तवाद कहते हैं । यह निष्कर्ष सभी वस्तुओं पर लागू होता है, किन्तु वस्तुएं तो अनेक हैं जिन्हें अगर अलग-अलग कोटि की मानी जाये तब तो तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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