Book Title: Tulsi Prajna 1992 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 36
________________ १३. श्रीतत्वार्थसूत्रम् [टीका-हरिभद्र], ऋषभदेव केशरीमल संस्था सं० १६६२, पृ० ४६५-४६६. १४. सम्यग्दृष्टिश्रावक विरतान्नतवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाःक्रमशो संख्येयगुणनिर्जराः ६/४७. -तत्त्वार्थसूत्र, नवम् अध्याय, पृ० १३६; पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध ___ संस्थान, वाराणसी १९८५. १५. जैन साहित्य और इतिहास (पं० नाथूरामजी प्रेमी)पृ० ५२४-५२६ । १६. देखें(अ) जैन साहित्य का इतिहास द्वितीय भाग, (पं० कैलाशचंद्रजी) चतुर्थ अध्याय पृ० २९४-२६६ । (ब) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश (पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार), पृ० सं० १२५-१४६ । (स) तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-२, (डॉ. नेमीचन्दजी) (द) सर्वार्थसिद्धि-भूमिका, पं० फूलचन्दजी सिद्धान्ताशास्त्री, पृ० ३१-४६ । १७. देखें-सर्वार्थ सिद्धि, सं०-५० फूलचन्द सिद्धान्ताशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ (१९५५ १/८; पृ० ३१-३३, ३४, ४६, ५५-५६, ६५-६७, ८४-८५, ८८ । १८. (अ) णाहं मग्गणाठाणो णाहं गुणठाण जीवठाणो ण। कत्ता ण हि कारइदा अणुमंता व कत्तीणं ।। ---नियमसार गाथा ७७, प्रकाशक-पंडित अजित प्रसाद, दि सेन्ट्रल जैन पब्लिशिंग हाउस, लखनऊ १९३१ । (ब) णेव य जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अस्थि जीवस्स । जेण टु एदे सव्वे पुग्गलदव्वस्स परिणामा । -समयसार, गा० ५५, प्रका०-श्री म० ही० पाटनी दि० जैन पार० ट्रस्ट मारोठ (मारवाड़) १९५३ । १६. सूक्ष्मसम्परायच्छद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश ॥१०॥ एकादश जिने ॥११॥ बादरसम्पराये सर्वे ॥१२॥ -तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ६, विवेचक पं० सुखलालजी २०. तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् ॥३५॥ हिंसाऽनुतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः ॥३६॥ आज्ञाऽपायविपाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंयतस्य ।।३७॥ उपशान्तक्षीण कषाययोश्च ॥३८॥ शुक्ले चाये पूर्वविदः ॥३६॥ केवलिनः ॥४०॥ --तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय : २८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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