Book Title: Tulsi Prajna 1992 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 34
________________ उठाकर जैन अध्यात्म को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया। मात्र यही नहीं उन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्यो की गुणस्थान, जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि अवधारणाओं से पूर्णतया . अवगत होकर भी शुद्धनय की अपेक्षा से आत्मा के सम्बन्ध में इन अवधारणाओं का स्पष्ट रूप से खण्डन किया है । यह प्रतिषेध तभी सम्भव था, जब उनके सामने ये अव धारणायें सुस्थिर होतीं । हमें यह भी स्मरण रखना चाहिये कि आध्यात्मिक विकास के इन विभिन्न वर्गों की संख्या के निर्धारण में उमास्वाति पर बौद्ध परम्परा और योग-परम्परा का भी प्रभाव हो सकता है । मुझे ऐसा लगता है कि उमास्वाति ने आध्यात्मिक विशुद्धि की चतुर्विध, सप्तविध और दसविध वर्गीकरण की यह शैली सम्भवतः बौद्ध और योग परम्पराओं से ग्रहण की होगी । स्थविरवादी बौद्धों में सोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी और अर्हत् ऐसी जिन चार अवस्थाओं का वर्णन है वे परिषह के प्रसंग में उमास्वाति की बादरसम्पराय, सूक्ष्म - सम्पराय, छद्मस्थवीतराग और जिनसे तुलनीय मानी जा सकती हैं । योगवाशिष्ठ में आध्यात्मिक विकास की ज्ञान की दृष्टि से जिन सात अवस्थाओं का उल्लेख है उन्हें ध्यान के सन्दर्भ में प्रतिपादित तत्त्वार्थसूत्र की सात अवस्थाओं से तुलनीय माना जा सकता है। इसी प्रकार महायान सम्प्रदाय में आध्यात्मिक विकास की जिन दस अवस्थाओं का चित्रण है, उन्हें निर्जरा की चर्चा के प्रसंग से उमास्वाति द्वारा प्रतिपादित दस अवस्थाओं तुलनीय माना जा सकता है। इसी प्रकार आजीविकों द्वारा प्रस्तुत आठ अवस्थाओं से भी इनकी तुलना की जा सकती है । यद्यपि इस तुलनात्मक अध्ययन के सम्बन्ध में अभी गहन चिन्तन की अपेक्षा है, इस सन्दर्भ में विस्तृत चर्चा अगले किसी लेख में करेंगे । सन्दर्भ : १. कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउछस जीवद्वाण पण्णत्ता, तं जहा -मिच्छादिट्ठी; सासायणसम्मादिट्ठी, सम्मामिच्छादिट्ठी, अविरयसम्मादिट्ठी, विरयाविरए, पमत्तसंजए, अप्पमत्तसंजए, निअट्टिबायरे, अनिअट्टिबायरे, सुहुमसंपराएउवसामए वा खत्रए वा, उवसंतमोहे, रवीणमोहे, सजोगी केवली, अयोगी केवली । २६ - समवायांग ( सम्पा० मधुकर मुनि ), १४ / ६५ २. मिच्छादिट्ठी सासायणे य तह सम्ममिच्छादिट्ठी य । अविरयसम्म दिट्ठी विरयाविरए पमत्ते य ॥ तत्तोय अप्पमत्तो नियद्विअनियट्टिबाय रे सुहुमे । वसंतखीणमोहे होइ सजोगी अजोगी य ॥ - नियुक्ति संग्रह (आवश्यक निर्युक्ति), पृ० १४९ ३. चोद्दसहि भूयगामेहि" "वीसाए असमाहिठाणेहि ॥ Jain Education International - आवश्यकनिर्युक्ति (हरिभद्र) भाग २, प्रका० श्री भेरूलाल कन्हैयालाल कोठारी धार्मिक ट्रस्ट, मुम्बई, वीर सं० २५०८; पृष्ठ १०६-१०७ तुलसी प्रज्ञा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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