Book Title: Tulsi Prajna 1992 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 24
________________ ने आवश्यक नियुक्ति की टीका में 'अधुनामुमैव गुणस्थान द्वारेण दर्शयन्नाह संग्रहणिकार ....' कहकर इन दोनों गाथाओं को उद्धृत किया है। इससे स्पष्ट है कि प्राचीन नियुक्तियों के रचनाकाल में भी गुणस्थान की अवधारणा नहीं थी। नियुक्तियों के गाथा क्रम में भी इनकी गणना नहीं की जाती है। इससे यही सिद्ध होता है कि नियुक्ति में ये गाथाएं संग्रहणी सूत्र से लेकर प्रक्षिप्त की गई है। प्राचीन प्रकीर्णकों में भी गुणस्थान की अवधारणा का अभाव है । श्वेताम्बर-परम्परा में इन १४ अवस्थाओं के लिए 'गुणस्थान' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग हमें आवश्यकचूणि (७वीं शती) में मिलता है, उसमें लगभग तीन पृष्ठों में इसका विवरण दिया गया है। जहां तक दिगम्बर-परम्परा का प्रश्न है उसमें कसायपाहुड को छोड़कर षट्खण्डागम', मूलाचार और भगवती आराधना जैसे अध्यात्म प्रधान ग्रन्थों में तथा तत्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि', भट्ट अकलंक के राजवातिक', विद्यानन्दी के श्लोक वार्तिक' आदि दिगम्बर आचार्यों की टीकाओं में इस सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन हुआ है। उपर्युक्त ग्रन्थों के मूल सन्दर्भो से यह स्पष्ट हो जाता है कि षट्खण्डागम को छोड़कर शेष सभी इसे गुणस्थान के नाम से अभिहित करते हैं। श्वेताम्बर-परम्परा में भी आवश्यकचूणि", तत्त्वार्थभाष्य की सिद्धसेनगणि की वृत्ति, हरिभद्र की तत्त्वार्थसूत्र की टीका आदि में इस सिद्धान्त का विस्तृत उल्लेख पाया जाता है । हमारे लिये आश्चर्य का विषय तो यह है कि आचार्य उमास्वाति ने जहां अपने तत्त्वार्थसूत्र में जैनधर्म एवं दर्शन के लगभग सभी पक्षों पर प्रकाश डाला है, वहां उन्होंने १४ गुणस्थानों का स्पष्ट रूप से कहीं भी निर्देश नहीं किया है। तत्त्वार्थभाष्य, जो तत्त्वार्थसूत्र पर उमास्वाति की स्वोपज्ञ टीका मानी जाती है, उसमें भी कहीं गुणस्थान की अवधारणा का उल्लेख नहीं है । अतः यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उपस्थित होता है कि क्या तत्त्वार्थसूत्र के रचनाकाल तक जैनधर्म में गुणस्थान की अवधारणा का विकास नहीं हुआ था ? और यदि उस काल तक गुणस्थान की अवधारणा विकसित हो चुकी थी तो फिर उमास्वाति ने अपने मूल ग्रंथ तत्त्वार्थसूत्र में अथवा उसकी स्वोपज्ञ टीका तत्त्वार्थभाष्य में उसका उल्लेख क्यों नहीं किया? जबकि वे गुणस्थान-सिद्धान्त के अन्तर्गत व्यवहृत कुछ पारिभाषिक शब्दों का, यथा-बादर संपराय, सूक्ष्म संपराय, उपशान्त मोह, क्षीण मोह आदि का स्पष्ट रूप से प्रयोग करते हैं। यहां यह तर्क भी युक्तिसंगत नहीं है कि उन्होंने ग्रंथ को संक्षिप्त रखने के कारण उसका उल्लेख नहीं किया हो, क्योंकि तत्त्वार्थसूत्र नवें अध्याय में उन्होंने आध्यात्मिक विशुद्धि (नर्जरा) की दस अवस्थाओं को सूचित करते हुए एक लम्बा सूत्र बनाया है। पुनः तत्त्वार्थभाष्य तो उनका एक व्याख्यात्मक ग्रंथ है, यदि उनके सामने गुणस्थान की अवधारणा होती तो उसका वे उसमें अवश्य प्रतिपादित करते। तत्त्वार्थभाष्य में भी गुणस्थान सिद्धान्त की अनुपस्थिति से यह प्रतिफलित होता है कि तत्त्वार्थ भाष्य उमास्वाति की ही स्वोपज्ञ टीका है । क्योंकि यदि तत्त्वार्थभाष्य उमास्वाति की स्वोपज्ञ टीका न होती, तो तत्त्वार्थसूत्र की अन्य श्वेताम्बर-दिगम्बर सभी टीकाओं की भांति, उसमें भी कहीं न कहीं गुणस्थान की अवधारणा का प्रतिपादन अवश्य होता। इस आधार पर पुनः हमें यह भी तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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