Book Title: Tulsi Prajna 1992 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 31
________________ अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण (निवृत्तिबादर) अनिवृत्तिकरण ( अनिवृत्ति - बादर) जैसे नामों का अभाव उपशम और क्षय का विचार है। किन्तु वें गुणस्थान से उपशम और क्षायिक श्रेणी से अलगअलग आरोहण होता है ऐसा विचार नहीं है पतन की अवस्था का कोई चित्रण नहीं १. मिथ्यात्व ३. ४. सम्यक दृष्टि ५. श्रावक ६. विरत ७. अनन्तवियोजक 5. दर्शनमोह क्षपक ६. ( चारित्रमोह) उपशमक १०. ११. उपशान्त ( चारित्र) मोह ( चारित्र मोह) क्षपक १२. क्षीणमोह १३. जिन १४. - खण्ड १८. अंक १ ( अप्रैल-जून, १२) Jain Education International अप्रमत्तसंयत्त, अपूर्वकरण (निवृत्ति बादर) अनिवृत्तिकरण ( अनिवृत्ति बादर) जैसे नामों का अभाव उपशम और क्षपक का विचार है किन्तु वें गुणस्थान से उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी से अलग-अलग आरोहण होता है । ऐसा विचार नहीं है । पतन की अवस्था का कोई चित्रण नहीं मिच्छादिट्टि ( मिथ्यादृष्टि ) सम्मा-मिच्छाइट्ठी ( मिस्सगं ) सम्माइट्ठी ( सम्यक दृष्टि ) अविरदीए विरदावरदे (विरत - अविरत ) देसविरी ( सागार) संजमासं विरद (संजम ) दंसणमोह उवसामगे ( दर्शन मोह - उपशामक) दंसणमोह खव ( दर्शन मोह-क्षपक) चरितमोहस्स उपसामगे ( उवसामणा ) सुमरागी ( सुमहि सम्पराये ) उवसत कसाय खवगे खीणमोह (छदुमत्यो वेदगो) जिण केवल सव्वण्हू- सव्वदरिसी ( ज्ञातव्य है कि चूर्णि में 'सजोगिजिणो' शब्द है मूल में नहीं है) चूर्णि में योगनिरोध का उल्लेख है For Private & Personal Use Only २३ www.jainelibrary.org

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