Book Title: Tulsi Prajna 1992 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 29
________________ सम्यकदृष्टि (अवतरित दृष्टि) अवतरित सम्यक दृष्टि (सम्यकदृष्टि) (दर्शन मोह उपशमक) देश विरत श्रावक प्रमतसंयत विरत देश विरत सर्व विरत (प्रमत्तसंयत) अप्रमत्त संयत अप्रमतसंयत अनन्तवियोजक (उपशान्त दर्शनमोह) दर्शनमोहक्षपक बादर सम्पराय अपूर्वकरण (निवृत्ति बादर सम्पराय अनिवृत्तिकरण उपशमक (चरित्रमोह) सूक्ष्म सम्पराय उपशांत कषाय उपशान्त मोह क्षपक छद्मस्थ वीतराग क्षीण कषाय क्षीण-मोह जिन केवली (जिन) जिन सूक्ष्म सम्पराय उपशान्तमोह १२. क्षीण मोह सयोगी केवली अयोगी केवली १४. तत्त्वार्थसूत्र में आध्यात्मिक विकास का जो क्रम है, उसकी गुणस्थान सिद्धान्त से इस अर्थ में भिन्नता है कि जहां गुणस्थान सिद्धान्त में आठवें गुणस्थान से उपशम श्रेणी और क्षपक श्रेणी से आरोहण की विभिन्नता को स्वीकार करते हुए भी यह माना है कि उपशम श्रेणी वाला क्रमशः ८वें, हवें एवं १०वें गुणस्थान से होकर ११वें गुणस्णान में जाता है जबकि क्षपक श्रेणी वाला क्रमश: ८वें, वें एवं १०वें गुणस्थान से सीधा १२वें गुण स्थान में जाता है। जबकि उमास्वाति यह मानते प्रतीत होते हैं कि चाहे दर्शनमोह के उपशम और क्षय का प्रश्न हो या चारित्रमोह के उपशम या क्षय का प्रश्न हो-पहले उपशम होता है और फिर क्षय होता है। दर्शन मोह के समान चारित्र मोह का भी क्रमशः उपशम, उपशान्त, क्षपण और क्षय होता है। उन्होंने उपशम और क्षय को मानते हुए उनकी अलग-अलग श्रेणी का विचार नहीं किया है। उमास्वाति की कर्मविशुद्धि की दस अवस्थाओं में प्रथम पांच का सम्बन्ध दर्शन मोह के उपशम और क्षपण से है तथा अन्तिम पांच का सम्बन्ध चारित्र मोह के उपशम, उपशान्त, क्षपण और क्षय से है। प्रथम भूमिका में सम्यक् दृष्टि उपशम से सम्यक् दर्शन प्राप्त करता है-ऐसे उपशम सम्यक् दृष्टि का क्रमशः २ श्रावक और ३ विरत के रूप में चारित्रिक विकास तो होता है किन्तु उसका सम्यक् दर्शन औपशामिक होता है अतः वह उपशान्त दर्शन खण्ड १८, अंक १ (अप्रैल-जून, १२) २१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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