Book Title: Tulsi Prajna 1992 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 18
________________ अर्हन्निदं दयसे विश्वमम्बं नवाओजीओ रूद्रत्वदस्ति || २. नतुर्देववतः शते गोद्वारथा वधूमन्तासुदासः । अन्नग्ने पैजवनस्य दानं होते व सद्द्म पर्येमिरेभन् ॥ ३. सणे मनुष ऊर्ध्वसानआसा विषदर्शसानायशरूम् । सतमो नहुषोऽस्मत्सुजातः पुरोऽभिनदर्हन् दस्युहत्ये ॥ -२.३३.१० - ऋक् - १०.६६.७ उपर्युक्त तीन मंत्रों में प्रथम मंत्र में अर्हन् को रूद्र के समान ओजस्वी बताया गया है और उससे विश्वमम्ब, विश्वरूप और धन्वसायकों की पूर्ति चाही गई है । दूसरेतीसरे मंत्रों में अर्हन को देववत राजा के पौत्र और पिजवन के पुत्र सुदास और मनुष्यों ष्ठ नहुष के साथ उल्लेख किया गया है और उसे ऊर्ध्वसान - शत्रुओं को नष्ट करने वाला कहा गया है ।" —ऋक् - ७.१८.२२ इन तीन मंत्रों में प्रयोग के अलावा मंत्र ( २.३.१ ) में 'देवो देवान्यजत्वग्निरर्हन्" मंत्र (२.३.३) में 'अर्हन् देवान् यक्षि' मंत्र (५.७.२ ) में – 'अर्हन्तश्चिद्यमिन्धते' मंत्र ( ५.२२.५ ) में - अर्हन्तो ये सुदानवो नरो असामिशवस:, मंत्र (५.८६.५ ) में 'अर्हन्ता 'चित्पुरोदधेऽशेव देवातते' मंत्र ( १०.२.२ ) में 'देवो देवान्यजत्वग्निरर्हन्' – इत्यादि अनेकों मंत्रों में भी अर्हन् और अर्हन्त पद क्रमशः यागयोग्य, प्रशंस्य, यजमानयोग्य, पूज्य आदि अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । अर्ह पूजायाम् पाणिनि ने अपने धातु पाठ में 'अर्ह पूजायाम्' धातु को परस्मैपदिन् क्रमांक् ७४०, चुरादि क्रमांक १७३१ और क्रमांक १८३० पर तीन बार पढ़ा है। उसने अर्ह शब्द को 'पूजायां योग्यत्वे च ' – पूजा और योग्यता दो अर्थों में प्रयोक्तव्य कहा है । अष्टाध्यायी सूत्र ( ५.१.६१ ) " तदहं ति” के अनुसार अर्हति - लब्धुं योग्यो भवति-पद में दूसरे सूत्र (५.१.११७ ) " तदर्हम्" से वत् प्रत्यय और सूत्र ( ७१.७०) 'उगिदचां सर्वनामस्थानेऽधातो:' से नुम् का आगम होते हैं और अति आनहं अहिता-आहिष्यत्-आर्हीत्-अह्यत्अजिहिषति-अह्,र्यंते-आहिं और अर्हयति-ते, अर्हयांबभूव, आस, चकार, चक्रे, अर्हयिताआहित्-तं अर्थात् अर्हयिषीष्ठ अजहयिषति - अह येते -- आहि- अर्हयित्वा आदि अनेकों रूप बन सकते हैं । Jain Education International इसी प्रकार अर्ह से शतृ प्रत्यय लगने से संस्कृत व्याकरण के अनुसार ही वर्तमान काल में कर्ताकारक के एक वचन का रूप अर्हत् भी बन सकता है । अर्हत् का बहुवचन "अर्हन्तः" उपर्युक्त ऋग्वेद मंत्रों में प्रयुक्त है और उसका लौकिक रूप 'अरहंत' खारवेल - प्रशस्ति में तथा खारवेल की अग्रमहिषी (महारानी) द्वारा बनवाई गई गुफा के लेख में है "अरहंत पसादाय कलिंगानं समनानं लेनं कारितं " For Private & Personal Use Only तुलसी प्रशा www.jainelibrary.org

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