Book Title: Tulsi Prajna 1992 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 19
________________ सारांश इस प्रकार पंच परमेष्ठिपदों के मंत्रराज का विकास जहां तंत्रमंत्र और आध्यात्म जगत् के विकास में जैन जगत् का योगदान है वहां "नमःसिद्धम्यः" -मंगल वाक्य का नमस्कार या नवकार मंत्र के रूप में विकास जैन ऐतिह्य की अति प्राचीन और सुदीर्घ कालीन चिंतन-परम्परा का परिचायक है ।५ 00 संदर्भ १. तुलसीप्रज्ञा, लाडन अंक १७/२ जुलाई-सितम्बर १६६१ में प्रकाशित-'क्या सामान्य केवली के लिए अर्हन्त पद उपयुक्त है ?' और 'तित्थयर' कलकत्ता अंक १५/४ अगस्त १६६१ में प्रकाशित-'पंचपरमेष्ठिपद नियुक्ति'-शीर्षक दो लेख । २. आचार्य वीरसेन द्वारा बताई गई यह निबद्ध-अनिबद्ध मंगल की परम्परा अतीव प्राचीन है । खण्डगिरि की 'खारवेल प्रशस्ति' के आदि व हासिए पर अनिबद्ध मंगल के रूप में वर्द्धमंगल (बाद का मंगलकलश) और स्वस्तिक और लेख के दाहिने और, नंदिपद और अन्त में वृक्षचत्य बने हैं। निबद्ध-मंगल के रूप में प्रशस्ति-लेख्य से पूर्व में 'नमो अरहंताणं नमो सव्व सिधानं' लिखा गया है। इसी प्रकार अनन्त गुंफा, बैकुण्ठ गुंफा और बाघ गुंफा के लघुलेखों से पूर्व भी अनिबद्ध मंगल रूप में वृक्षचैत्य, स्वस्तिक, नंदि पद, त्रिरत्न आदि बने हैं। जूनागढ़ की जैन गुंफा, सांची स्तूप, तोरण आदि में भी ये मंगल चिह्न हैं। कान्हेरि पर्वत के एक लेख में नंदिपद का नामोल्लेख भी है। ३. आचारांग, स्थानांग और समवायांग का आरम्भ 'सुर्यमे आउसं' और सूत्र कृतांग का 'बुज्झेज्ज तिउठेज्जा' पदों से होता है, किंतु भगवती के सूत्रारम्भ से पूर्व 'नमो अरहताणं' 'नमो बंभीए लिवीए' और 'नमो सुयस्स'-तीन प्रकार के मंगल वाक्य लिखे मिलते हैं । भगवती के पंद्रहवें शतक के आरम्भ में भी 'नमो सुयदेवयाए भगवईए' लिखा है । प्रज्ञापना सूत्र का आरम्भ मंगल वाक्य से है और नमस्कार मंत्र भी वहां लिखा है किन्तु हरिभद्रसूरि और मलयगिरि ने उसकी व्याख्या नहीं की। षट्खंड का आरम्भ नमस्कार मंत्र से है और दशाश्रु तस्कंध की वृत्ति में नमस्कार मंत्र की व्याख्या है । इस विषयक एक गाथा इस प्रकार है आगे चौबीसी हुइ अनंती होसी बार अनन्त । नवकार तणी कोइ आदि न जाणे ऐमभासे अरिहंत ॥ इसी गाथा से मिलती-जुलती बात 'लघुनवकारफल' नामक ग्रन्थ की निम्न तीन गाथाओं में है जिणसासणस्स सारो चउदसपुन्वाण जो समुद्धारो। जस्स मणे नवकारो किं कुणइ तस्स संसारो ॥ खण्ड १८, अंक १ (अप्रैल-जून, ६२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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