Book Title: Tulsi Prajna 1992 04
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 12
________________ का कारण मानकर आचार्य पुष्पदंत मंगल आदि छह अधिकारों का सकारण व्याख्यान करने के लिए सूत्र कहते हैं णमो अरहंताणं -- इत्यादि । आगे वे ही मंगल के भेदों और उसमें गुणों का बखान करते हुए पुनः लिखते हैं"कतिविधं मंगलम् ? मंगल सामान्यान्तदेकविधम् मुख्यामुख्य भेदतो द्विविधम्, सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र भेदास्त्रिविधं मंगलम्, धर्म सिद्ध साध्वर्हद्भेदाच्चतुविधम्, ज्ञानदर्शन त्रिगुप्तिभेदात् पंचविधम्, 'गमो जिगाणं' इत्यादिनानेकविधवा । अथवा मंगल म्हि छ अहियाए दंड आवन्तया भवंति । तं जहा मंगलं मंगलकत्तामंगलकरणीय मंगलोवायो मंगल विहाणं मंगलफलमिदि । एदेसि छण्हंपि अत्थो उच्च दे । मंगलत्थो पुव्वतो । मंगलकत्ता चोहसविज्जाट्ठाणपारओ आइरियो । मंगलकरणीयं भव्वजणो । मंगलवायोति रपर्णसाहणाणि । मंगलविहाणं एणविहादि पुच्वृत्तं । मंगल फलं अब्भुदय निस्सेयस सुहाइ । तं मंगल सुतस्स आदीए मउभे अवसाणे च वत्तव्यं । उत्तं च..... आदि अवसाणमज्झे पण्णतं मंगलं जिणि देहि । तो कय मंगल विजयो इणमो सुत्तं पवक्खामि ॥" अर्थात् मंगल कितने प्रकार का होता है ? सामान्यतया मंगल एक प्रकार का है । मुख्य और गौण भेद से दो प्रकार का, सम्यक् दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र भेद से तीन, और धर्म सिद्ध, साधु और अर्हन्त भेद से चार प्रकार का तथा ज्ञान, दर्शन व तीन गुप्ति भेद से पांच प्रकार का होता है । अथवा जिनेन्द्रों को नमस्कार कहें तों प्रकार का होता है । अथवा मंगल के विषय में छह अधिकारों द्वारा दंडकों का कथन करना चाहिए | जैसे मंगल, मंगलकर्ता, मंगलकरणीय, मंगल उपाय, मंगलभेद और मंगल फल । पाप का गलन-मंगल । चौदह विद्या स्थानों के पारगामी मंगल कर्ता । भव्यजन उसके योग्य । रत्नत्रय उपाय । पूर्वोक्त मंगलभेद और अभ्युदय मंगलफल । इसलिए मंगल को ग्रन्थ के आदि, मध्य और अन्त में कहना चाहिए । इन उपर्युक्त उद्धरणों से ऐसा परिज्ञात होता है जैसे आचार्य पुष्पदंत ही इन पंच परमेष्ठि मंगल पदों के कर्ता हैं । कम से कम आचार्य वीरसेन तो ऐसा ही मानते प्रतीत होते हैं । किन्तु महानिशीथ में लिखा मिलता है कि पंचमंगल का व्याख्यान सूत्र की निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णियों में किया गया है वह सीधे तीर्थंकरों से प्राप्त हुआ था । वृद्ध संप्रदाय के अनुसार वज्रस्वामी ने इस महामन्त्र का उद्धार किया और इसे मूल सूत्र में स्थापित किया । शयंभवसूरि भी कायोत्सर्ग को नमस्कार के द्वारा पूर्ण करने का निर्देश देते हैं । भगवती की वृत्ति के आरम्भ में नमस्कार मंत्र लिखा है । प्रज्ञापना के आरम्भ में भी यह महामंत्र है । मलयगिरि ने अपनी वृत्ति में उसकी व्याख्या नहीं की किन्तु दशवेकालिक की दोनों चूर्णियों और हरिभद्रीय वृत्ति में ' णमो अरिहंताणं' की व्याख्या की गई है ।' उत्तराध्ययन के बीसवें अध्ययन के आरम्भ में 'सिद्धाणं नमो किच्चा संजयाणं च तुलसी प्रज्ञा ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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