Book Title: Tulsi Prajna 1977 04
Author(s): Shreechand Rampuriya, Nathmal Tatia, Dayanand Bhargav
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 7
________________ वचन-वीथी नाणसंपन्नयाए णं भन्ते ! जीवे कि भन्ते ! ज्ञान-सम्पन्नता (श्रतज्ञान की सम्पन्नता) से जीव क्या प्राप्त करता जणयइ? नाणसंपन्नयाए णं जीवे सव्वभावा- ज्ञान-सम्पन्नता से वह सब पदार्थों हिगमं जणयइ। नाणसंपन्ने णं जीवे को जान लेता है। ज्ञान-सम्पन्न जीव चाउरन्ते संसारकन्तारे न विणस्सइ।। चार गतिरूप चार अन्तों वाली संसार अटवी में विनष्ट नहीं होता। जहा सूई ससुत्ता जिस प्रकार ससूत्र (धागे में पिरोई पडिया वि न विणस्सइ। हुई) सुई गिरने पर भी गुम नहीं होती, तहा जीवे ससुत्ते उसी प्रकार ससूत्र (श्रुत-सहित) जीव संसारे न विणस्सइ ॥ संसार में रहने पर भी विनष्ट नहीं होता। नाणविणयतवचरित्तजोगे संपाउणइ (ज्ञान-सम्पन्न) अवधि आदि विशिष्ट ससमयपरसमय संघायणिज्जे भवइ । ज्ञान, विनय, तप और चरित्र के योगों को प्राप्त करता है तथा स्वसमय और परसमय की व्याख्या या तुलना के लिए प्रामाणिक पुरुष माना जाता है। दसणसंपन्नयाए णं भन्ते ! जीवे भन्ते ! दर्शन-सम्पन्नता (सम्यक् कि जणयइ ? दर्शन की सम्प्राप्ति) से जीव क्या प्राप्त करता है ? दंसणसंपन्नयाए णं भवमिच्छत्तछेयण दर्शन-सम्पन्नता से वह संसार करेइ, परं न विज्झायइ । अणुत्तरेणं पर्यटन के हेतु-भूत मिथ्यात्व का उच्छेद नाणदंसणेणं अप्पाणं संजोएमाणे सम्मं करता है-क्षायिक सम्यक् दर्शन को भावमाणे विहरइ। प्राप्त होता है। उससे आगे उसकी प्रकाश शिखा बुझती नहीं । वह अनुत्तर ज्ञान और दर्शन को आत्मा से संयोजित करता हुना, उन्हें सम्यक् प्रकार से आत्मसात् करता हुआ विहरण करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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